'कमेंटेटर्स का कोई निजी एजेंडा नहीं होता', Asia Cup 2025 के बीच सुनील गावस्कर का यह कॉलम जरूर पढ़ें
सुनील गावस्कर कालम यह भारत की क्रिकेट की ही खूबसूरती है कि इसके प्रशंसक पूरी दुनिया में फैले हुए हैं जो खेल की हर छोटी-बड़ी बात को बारीकी से देखते हैं और उस पर अपनी मजबूत राय भी रखते हैं। इंटरनेट के पहले के दौर में न केवल भारतीय क्रिकेट बल्कि विश्व क्रिकेट की गतिविधियों की जानकारी रखना लगभग असंभव था।

सुनील गावस्कर का कालम: यह भारत की क्रिकेट की ही खूबसूरती है कि इसके प्रशंसक पूरी दुनिया में फैले हुए हैं, जो खेल की हर छोटी-बड़ी बात को बारीकी से देखते हैं और उस पर अपनी मजबूत राय भी रखते हैं। इंटरनेट के पहले के दौर में न केवल भारतीय क्रिकेट बल्कि विश्व क्रिकेट की गतिविधियों की जानकारी रखना लगभग असंभव था, खासकर अगर आप ऐसे देश में रहते हों जहां क्रिकेट शीर्ष दस खेलों में भी शामिल न हो।
जुनूनी प्रशंसक रेडियो कमेंट्री से जुड़ते थे, लेकिन यह बड़ा कठिन काम था क्योंकि न केवल एक जगह स्थिर रहकर शार्ट वेव रेडियो की पकड़ बनाए रखना पड़ता था बल्कि कमेंट्री भी साफ नहीं आती थी, जिससे और निराशा होती थी। अब तो बस टीवी, फोन, लैपटॉप आन कीजिए और पलभर में क्रिकेट की दुनिया की खबरें मिल जाती हैं।
भारतीय क्रिकेट के प्रति इस प्रेम का अर्थ है कि हर किसी की अपनी राय और नजरिया है, और भारतीय क्रिकेट में क्या सही है और क्या गलत। एशिया कप का पहला मैच भारत ने बेहद आसानी से जीतने के बाद अमेरिका में भारतीय प्रशंसकों के सवाल और टिप्पणियां आनी शुरू हो गईं।
मैं इन दिनों अमेरिका की यात्रा पर हूं जहां मैं जन्मजात हृदय विकार से पीड़ित बच्चों की समस्या के प्रति जागरूकता बढ़ाने और उनकी नि:शुल्क सर्जरी के लिए धन जुटाने का प्रयास कर रहा हूं। हमने पहले बल्लेबाजी क्यों नहीं की, ताकि पाकिस्तान के विरुद्ध मैच से पहले बल्लेबाजों को अभ्यास मिल जाता?, क्यों इस खिलाड़ी को प्लेइंग इलेवन में जगह नहीं दी?, क्यों इस बल्लेबाज को ऊपर नहीं भेजा? ऐसे तमाम सवाल।
यह सब देखना भले रोमांचकारी हो, लेकिन यह भारतीय क्रिकेट और उसके खिलाड़ियों पर अपार अपेक्षाओं के दबाव को भी दर्शाता है। यहां असफलता की गुंजाइश बहुत कम है और हर मैच जीतना ही है और अगर टेस्ट मैच हो तो जीत नहीं तो कम से कम ड्रा होना चाहिए। ऐसे माहौल में आलोचना तो होती ही है। टीम इसे बाहरी शोर कहकर अपने डिजाइनर ईयरपीस से बंद कर लेती है।
लेकिन समर्थक उन्हें तमाम मिर्च-मसाला लगाकर बाहरी टिप्पणियां बताते ही रहते हैं। आज इतने माध्यम होने के कारण कमेंटेटर्स की स्थिति कुछ वैसी ही है जैसी विकेटकीपर या अंपायर की होती है। जैसे विकेटकीपर का एक छूटा हुआ कैच बरसों याद किया जाता है, चाहे उसने कितने ही शानदार कैच पकड़े हों या अंपायर की नौ सही अपीलों के बीच एक गलत फैसले पर ही ज्यादा चर्चा होती है। उसी तरह, कमेंटेटर अगर खिलाड़ी और टीम की नौ बार तारीफ करें, लेकिन एक बार कमी निकाल दें तो बस वही याद रखा जाता है, बाकी सारी तारीफ भुला दी जाती है।
हर कमेंटेटर के पास रिची बेनाड जैसी सधी हुई भाषा नहीं होती। वे खिलाड़ियों की आलोचना से नफरत करते थे और अगर करनी भी पड़ती तो ऐसे शब्द चुनते कि आलोचना पंख की छुअन जैसी लगे। उनके जैसा दूसरा शायद कभी नहीं होगा। वे ऑस्ट्रेलियाई टीम से भावनात्मक रूप से अलग रहते थे, इसलिए मैदान पर घटनाएं उनके मन के मुताबिक न भी हों, तो भी वे अपनी भावनाओं पर काबू रखते थे।
इयान चैपल भी ऐसे ही थे। लेकिन दुनिया भर में अधिकांश पूर्व खिलाड़ी, जो अब कमेंट्री बाक्स में हैं, वे अपने देश की टीम से गहराई से जुड़े रहते हैं और उनकी भावनाएं उनकी कमेंट्री में झलकती हैं। कुछ लोग सच को सच कहते हैं तो कुछ और भी ज्यादा तीखे शब्दों का इस्तेमाल कर देते हैं। मजेदार बात यह है कि वही संवेदनशील खिलाड़ी, जो खेलते समय आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते थे, संन्यास लेने के बाद खुद कमेंट्री में वही बातें कहने लगते हैं। तब उन्हें एहसास होता है कि कमेंटेटर्स का कोई निजी एजेंडा नहीं होता।
अगर वे ईमानदारी से बोलते हैं तो वही कहते हैं जो मैदान पर दिखता है। यही उनका काम है। कुछ इसे सजाकर कह सकते हैं, लेकिन अधिकांश अपने खेलते समय देश के लिए दिल ओ जान लगा देने के कारण अपनी भावनाओं को रोक नहीं पाते। अपने पूरे करियर में मैंने ऐसा कोई कमेंटेटर नहीं देखा जो यह चाहे कि उसकी टीम हार जाए। आखिरकार, दुनिया भर के क्रिकेट प्रशंसकों की तरह वही भी इस प्यारे खेल का सबसे बड़ा प्रशंसक होता है।
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