EU Carbon Tax 2026: 1 जनवरी से लागू होगा यूरोपियन यूनियन का कार्बन टैक्स, भारतीय निर्यातकों के लिए क्या हैं उपाय
EU Carbon Tax 2026: यूरोपियन यूनियन 1 जनवरी 2026 से स्टील और एल्युमिनियम पर कार्बन टैक्स (CBAM) लागू करने जा रहा है। हालांकि यह टैक्स यूरोप के खरीदार ...और पढ़ें

स्टील, एल्युमिनियम पर कल से EU का कार्बन टैक्स
भारत की स्टील और एल्युमिनियम इंडस्ट्री के लिए नए साल की शुरुआत एक निराशा के साथ हो रही है। यूरोपियन यूनियन (EU) 1 जनवरी 2026 से कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (CBAM) शुरू कर रहा है। इसे आम भाषा में कार्बन टैक्स भी कह सकते हैं। भारत स्टील और एल्युमिनियम का यूरोप को बड़े पैमाने पर निर्यात करता रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि आने वाले समय में CBAM का दायरा दूसरे सेक्टर और प्रोडक्ट तक बढ़ सकता है। इससे उनके लिए भी कम्प्लायंस और रिपोर्टिंग की जरूरतें बढ़ जाएंगी। नई व्यवस्था खास तौर से भारतीय एमएसएमई के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है।
CBAM के तहत यूरोप के आयातकों को उतना ही कार्बन टैक्स देना है जितना EU के एमिशन ट्रेडिंग सिस्टम के तहत यूरोपियन कंपनियां चुकाती हैं। इससे भारत जैसे ज्यादा कार्बन फुटप्रिंट वाले देशों से आयात महंगा होगा। भारत में स्टील बनाने में आम तौर पर ब्लास्ट फर्नेस का इस्तेमाल होता है, जिसमें उत्सर्जन बहुत अधिक होता है। भारतीय मेटल कंपनियों को पहले ही अमेरिका में 50 प्रतिशत टैरिफ का दबाव झेलना पड़ रहा है, CBAM उनके लिए दोहरी मार जैसा होगा।
भारत ने EU को वर्ष 2024-25 में 5.8 अरब डॉलर का स्टील और एल्युमिनियम निर्यात किया। एक साल पहले की तुलना में यह 24% कम था, भले ही अभी तक कोई कार्बन टैक्स नहीं देना पड़ा हो। दरअसल, यह गिरावट अक्टूबर 2023 में EU के नए नियम लागू होने के बाद शुरू हुई, जिसके तहत एक्सपोर्टर्स के लिए CBAM के ट्रांजिशन फेज के तहत प्लांट स्तर पर कार्बन उत्सर्जन की रिपोर्ट करना जरूरी था। कम्प्लायंस का खर्च, डेटा गैप और वेरिफिकेशन की दिक्कतों की वजह से कई भारतीय कंपनियां कम मात्रा में निर्यात कर सकीं। कार्बन टैक्स व्यवस्था के तहत इसमें और गिरावट आ सकती है।
थिंक टैंक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव (GTRI) के संस्थापक अजय श्रीवास्तव के अनुसार EU पहुंचने वाले भारतीय स्टील और एल्युमीनियम की हर शिपमेंट पर कार्बन कॉस्ट लगेगी। हालांकि भारतीय निर्यातकों को यह टैक्स नहीं देना है, यूरोप के आयातक यह टैक्स देंगे। लेकिन वे इसका खर्च भारतीय निर्यातकों पर डालेंगे। प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए भारतीय एक्सपोर्टर्स को कीमतों में 15-22% की कटौती करनी पड़ सकती है ताकि EU आयातक उस मार्जिन का इस्तेमाल CBAM टैक्स देने के लिए कर सकें।
हम बता रहे हैं कि नई व्यवस्था में क्या बदलने जा रहा है और उसके लिए भारतीय निर्यातकों को क्या तैयारियां करनी पड़ेगी।
CBAM में क्या करेंगे यूरोपीय आयातक
1 जनवरी 2026 से EU का कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (CBAM) हर मोल-भाव में शामिल होगा। EU खरीदार यह देखेंगे कि भारत से आयात किया गया स्टील, कार्बन कॉस्ट शामिल करने के बाद EU या तीसरे देश के सप्लायर के मुकाबले प्रतिस्पर्धी है या नहीं। अगर ऐसा नहीं होता है तो वे सप्लायर से दाम कम करने के लिए कह सकते हैं, या नहीं तो सप्लायर भी बदल सकते हैं।
उत्पादन की प्रक्रिया महत्वपूर्ण
कार्बन टैक्स में स्टील और एल्युमिनियम के उत्पादन की प्रक्रिया मायने रखती है। स्टील उत्पादन में ब्लास्ट फर्नेस–बेसिक ऑक्सीजन फर्नेस (BF–BOF) का इस्तेमाल करने पर उत्सर्जन सबसे अधिक होता है। गैस आधारित डायरेक्ट रिड्यूस्ड आयरन (DRI) प्रक्रिया में कम और स्क्रैप-बेस्ड इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस (EAF) में सबसे कम होता है। एल्युमिनियम में भी बिजली का स्रोत और पावर इंटेंसिटी बहुत जरूरी हैं। अगर बिजली कोयले से बनी है तो वह CBAM कॉस्ट को बढ़ा देगी।
एमिशन डेटा होगा प्रतिस्पर्धा का नया आधार
एमिशन यानी उत्सर्जन का सही माप प्रतिस्पर्धा का आधार बनेगा। CBAM को प्लांट स्तर का एमिशन अकाउंटिंग सिस्टम कह सकते हैं। इसमें हर चरण के लिए एमिशन की गणना की जानी चाहिए। इस व्यवस्था में कॉरपोरेट के स्तर पर औसत, ESG डिस्क्लोजर या सस्टेनेबिलिटी रिपोर्ट का कोई महत्व नहीं है। प्लांट का वेरिफाइड डेटा ही मायने रखता है जिसे EU आयातक अपने सिस्टम में जमा कर सकते हैं।
क्या करें भारतीय निर्यातक
इसके लिए मजबूत आंतरिक अकाउंटिंग सिस्टम की जरूरत है। निर्यातकों को हर तिमाही ईंधन का इस्तेमाल, बिजली की खपत, प्रोडक्शन वॉल्यूम और एमिशन फैक्टर को ट्रैक करना होगा। सभी रिकॉर्ड ऑडिट योग्य और EU के तरीकों के हिसाब से होने चाहिए। इसके बिना निर्यातकों को EU के डिफॉल्ट एमिशन वैल्यू का सामना करना पड़ेगा। यह वास्तविक एमिशन से 30–80% तक अधिक हो सकता है। डिफॉल्ट वैल्यू कार्बन कॉस्ट को बहुत अधिक बढ़ा सकती है और प्रतिस्पर्धी क्षमता खत्म कर सकती है।
वेरिफिकेशन जरूरी हो जाएगा
2026 से एमिशन डेटा का स्वतंत्र वेरिफिकेशन जरूरी होगा। सिर्फ EU से मान्यताप्राप्त या ISO 14065-कम्प्लायंट वेरिफायर स्वीकार किए जाएंगे। यह प्रक्रिया किसी फाइनेंशियल ऑडिट जैसी होगी। इसमें डॉक्यूमेंट रिव्यू, उत्सर्जन का वैलिडेशन और सर्टिफिकेशन शामिल होंगे। CBAM क्लॉज के कारण खरीदार की लागत बढ़ेगी तो वे सप्लायर से दाम कम करने, वेरिफिकेशन की शर्तें पूरी करने आदि की मांग करेंगे। ये क्लॉज तय करेंगे कि कार्बन रिस्क को कैसे साझा किया जाए।
कामकाज में अनुशासन की जरूरत
सप्लायर के लिए प्लांट में ऑपरेशन के स्तर पर अनुशासन जरूरी होगा। प्रोडक्शन, लॉजिस्टिक्स और कम्प्लायंस - हर स्तर पर डॉक्यूमेंटेशन एक जैसा होना चाहिए। इसमें कोई मिसमैच होने पर EU खरीदारों के लिए ऑडिट रिस्क बढ़ेगा। ऐसे में वे शिपमेंट में देरी कर सकते हैं या दूसरे सप्लायर के पास जा सकते हैं।
कम उत्सर्जन वालों के लिए मौका
कम उत्सर्जन करने वाले उत्पादकों के लिए, खासकर जो गैस-आधारित DRI, स्क्रैप-आधारित EAF या स्वच्छ बिजली इस्तेमाल करते हैं, CBAM एडवांटेज बन सकता है। कार्बन-प्राइस वाले बाजार में सस्ता होना मायने रखता है। कम उत्सर्जन से उनका मार्जिन बेहतर हो सकता है।
प्रोडक्ट और खरीदार को समझना
भारतीय निर्यातकों के लिए पहला काम अपने एक्सपोजर को समझना है। इसका मतलब है EU को जाने वाले प्रोडक्ट, कस्टमर, शिपमेंट वॉल्यूम और प्रोडक्शन वाली जगह की मैपिंग करना। इस मैपिंग से यह पता चलेगा कि किन शिपमेंट पर सबसे अधिक दबाव है और कौन से खरीदार सबसे सख्त डॉक्यूमेंटेशन की मांग करेंगे।
निर्यातक एक इंटरनल ‘CBAM शैडो प्राइस’ व्यवस्था भी बना सकते हैं। इसमें प्रति टन एमिशन की गणना और उस पर कार्बन टैक्स को शामिल किया जा सकता है। निर्यातकों को यह मानकर चलना चाहिए कि खरीदार उनके इस कैलकुलेशन का इस्तेमाल करेंगे।
निर्यातकों के लिए जरूरी डेटा
खरीदारों की मदद के लिए निर्यातक हर प्लांट के लिए एक स्टैंडर्ड CBAM डेटा पैक तैयार कर सकते हैं। इसमें उत्पादन का तरीका, तिमाही आउटपुट, प्रति टन एम्बेडेड एमिशन, वेरिफिकेशन स्टेटमेंट और ऑडिट डिटेल्स शामिल हों। यह डेटा शिपमेंट के साथ जाएगा और इनवॉइस या ओरिजिन सर्टिफिकेट जितना ही जरूरी होगा।
MSME के लिए मुश्किल
कार्बन प्राइसिंग ग्लोबल ट्रेड को बदल देगी। सबसे ज्यादा बोझ MSME पर पड़ेगा। डेटा और वेरिफिकेशन की जरूरतों से कम्प्लायंस का खर्च बढ़ेगा, जिससे अनेक छोटे निर्यातक EU मार्केट से बाहर हो सकते हैं। एक बड़ी चुनौती यह है कि बड़ी कंपनियां अक्सर उन MSME के साथ प्लांट स्तर का एमिशन डेटा साझा नहीं करती हैं जो उनसे स्टील या एल्युमीनियम खरीदते हैं। इसलिए छोटी कंपनियों के पास CBAM के तहत जरूरी वेरिफाइड कार्बन जानकारी नहीं होती है। ऐसे मामलों में असल एमिशन के बजाय डिफाल्ट एमिशन वैल्यू लागू हो सकता है, जिससे लागत बहुत बढ़ जाएगी।

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