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    देश के समक्ष आए भुगतान संकट को देखते हुए 1991 में उदारीकरण और आर्थिक सुधारों से नहीं हो पाया पूरा उद्धार

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Mon, 19 Sep 2022 03:11 PM (IST)

    1991 में देश भुगतान के संकट से गुजर रहा था। उस समय सरकार ने उदारीकरण और आर्थिक सुधारों के नाम पर कई कदम उठाए। यदि आज विश्लेषण करें तो उस समय के सुधार बहुत व्यापक नहीं थे। घरेलू मोर्चे पर सुधार के विशेष प्रयास नहीं किए गए।

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    उदारीकरण का कदम अर्थव्यवस्था का अपेक्षा के अनुरूप उद्धार करने में सफल नहीं हुआ था।

    बिबेक देबराय/आदित्य सिन्हा : वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की हालिया टिप्पणी के बाद यह प्रश्न उठ रहा है कि 1991 के आर्थिक सुधार के कदम वास्तव में अधपके (हाफ बेक्ड) थे या नहीं। इस संबंध में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हमें उस समय की परिस्थितियों और उठाए गए कदमों का विश्लेषण करना होगा। देश के समक्ष आए भुगतान संकट को देखते हुए 1991 में आर्थिक सुधार के कदम मुख्यत: वृहद आर्थिक स्थिरता और संरचनात्मक संतुलन को ध्यान में रखकर उठाए गए थे। रुपये का करीब 20 प्रतिशत अवमूल्यन किया गया था, जिससे निर्यात प्रतिस्पर्धी हो। आयात शुल्क कम करने और कैश कंपनसेशन सपोर्ट खत्म करने जैसे कदम भी उठाए गए। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और विदेशी संस्थागत निवेश का भी इसे साथ मिला। विदेशी इक्विटी निवेश पर 40 प्रतिशत की सीमा हटा दी गई।

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    करीब 30 उद्योगों में 51 प्रतिशत तक के विदेशी इक्विटी निवेश को मंजूरी देने का अधिकार सीधे रिजर्व बैंक को दे दिया गया। हालांकि घरेलू मोर्चे पर लाइसेंस व्यवस्था को खत्म करना सबसे बड़ा कदम रहा। लाइसेंस व्यवस्था को खत्म करने के अलावा आर्थिक सुधारों को घरेलू मोर्चे पर ज्यादा केंद्रित नहीं किया गया। असल में घरेलू मोर्चे पर आर्थिक सुधार ज्यादा जटिल होते हैं। 1991 के सुधार ऐसे थे, जिनसे जुड़े फैसले केंद्र सरकार अपने स्तर पर ले सकती है। घरेलू मोर्चे पर सुधार ज्यादा चुनौतीपूर्ण और यथास्थिति को बदलने वाले होते हैं। इसीलिए ज्यादातर सरकारें इनके लिए साहस नहीं जुटा पाती हैं।

    निश्चित तौर पर मोदी सरकार में वह इच्छाशक्ति है। घरेलू मोर्चे पर कई आर्थिक सुधार किए गए हैं। उस समय के सुधारों और वर्तमान सरकार के कुछ कदमों का बिंदुवार विश्लेषण करते हैं। 1991 के आर्थिक सुधारों में बस आयात शुल्क के मसले को छुआ गया था। मोदी सरकार ने जीएसटी जैसी व्यवस्था को लागू किया। निसंदेह जीएसटी में कुछ समस्याएं आईं, लेकिन इसने व्यवस्था को आसान बनाया। 2014 में वर्ल्ड बैंक की ईज आफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग में भारत का स्थान 142वां था, जो 2020 में 63वां हो गया। इंसाल्वेंसी एंड बैंक्रप्सी कोड (आइबीसी) भी ऐसा ही कदम है।

    यह समझना होगा कि उदारीकरण का अर्थ केवल कंपनियां खुलने में सहूलियत देना ही नहीं है, बल्कि कंपनी को बंद करने की व्यवस्था भी उतनी ही जरूरी है। आइबीसी ने सुनिश्चित किया कि सभी क्रेडिटर्स के हितों की रक्षा करते हुए किसी कंपनी के चलते रहने या बंद होने की दिशा में कदम बढ़ाए जा सकें। 1991 में हुए सुधारों में भूमि सुधार, श्रम सुधार और कृषि के लिए भी कोई कदम नहीं उठाया गया था। भूमि और कृषि राज्यों की सूची में आते हैं, जबकि श्रम समवर्ती सूची का हिस्सा है। अब करीब 40 श्रम कानूनों को चार श्रम संहिताओं में समेटा गया है।

    समवर्ती सूची में होने के कारण कुछ राज्यों ने श्रम सुधार के कदम उठाए हैं और कुछ ने नहीं। भूमि सुधार पर भी केंद्र सरकार कदम बढ़ा रही है, जो कि राज्यों का विषय है। 1991 के सुधार निजीकरण पर केंद्रित थे। मौजूदा सरकार ने नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन तैयार की है, जिससे निजी सेक्टर की सहभागिता से संकटग्रस्त परियोजनाओं का बेहतर मूल्य प्राप्त किया जा सके। वित्त वर्ष 2021-22 से 2024-25 के चार वर्षों के दौरान छह लाख करोड़ की परियोजनाओं के मोनेटाइजेशन की तैयारी है।

    महत्वपूर्ण बात यह भी है कि सरकार अधिकारों को मोनेटाइज कर रही है, स्वामित्व को नहीं। यानी तय अवधि के बाद मोनेटाइज किए गए एसेट फिर सरकार के पास आ जाएंगे। बात वर्तमान सरकार की करें, तो जनधन, आधार और मोबाइल की तिकड़ी के माध्यम से डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर की व्यवस्था को सुदृढ़ करना बड़ी उपलब्धि है। इससे सरकारी योजनाओं की लीकेज बंद हुई। हर घर स्वच्छ जल पहुंचाने के लिए जल जीवन मिशन और हर घर शौचालय की व्यवस्था के लिए स्वच्छ भारत मिशन जैसी सामाजिक सुधार की योजनाएं भी लाई गई हैं। सड़क निर्माण पर पूंजीगत व्यय बढ़ाया गया, जिससे कनेक्टिविटी में सुधार हुआ और कंपनियों के लिए लाजिस्टिक्स की लागत कम हुई। रेलवे में भी सुधार किए जा रहे हैं। पूर्वोत्तर तक रेल, सड़क और हवाई कनेक्टिविटी को बढ़ाया गया है। स्पष्ट है कि असल में 1991 के सुधार आधे-अधूरे थे। आगे की सरकारों ने पिछली सरकारों के कामों को आगे बढ़ाने का काम किया। वहीं मोदी सरकार ने ऐसे सुधारों की दिशा में कदम बढ़ाए, जिन पर पहले काम नहीं किया गया था।

    [बिबेक देबराय चेयरमैन, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद

    आदित्य सिन्हा एडिशनल प्राइवेट सेक्रेटरी, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद]