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    धनबाद की आधी कोयला खदानों पर बंद, 2030 तक 80% पर संकट; पर ग्रीन औद्योगिक कॉरिडोर से लौट सकती है रौनक

    Updated: Mon, 08 Sep 2025 06:37 PM (IST)

    दामोदर घाटी जो कभी कोयला उत्पादन का गढ़ थी अब संकट में है। कोयला खदानों के बंद होने और प्रदूषण के कारण आर्थिक और मानवीय संकट गहरा रहा है। आवश्यकता है कि इस घाटी को कोयला-आधारित अतीत से हरित आर्थिक भविष्य की ओर ले जाया जाए। धनबाद बोकारो और रामगढ़ जैसे जिले ग्रीन औद्योगिक कॉरिडोर बन सकते हैं जहाँ सौर ऊर्जा और हरित हाइड्रोजन उत्पादन की अपार क्षमता है।

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    झारखंड और पश्चिम बंगाल के कोयला बहुल जिलों में फैली दामोदर घाटी को "भारत की रूर घाटी" कहा जाता है।

    नई दिल्ली। झारखंड और पश्चिम बंगाल के कोयला बहुल जिलों में फैली दामोदर घाटी जिसे "भारत का रूर घाटी" कहा जाता है ने आजादी के बाद देश की प्रगति के लिए ईंधन दिया है। झरिया और रानीगंज की खदानों से निकले कोयले ने भारत के विकास की नींव रखी है। 

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    दुर्गा पुर और बोकारो के इस्पात संयंत्र और सिंदरी के उर्वरक कारखाने आधुनिक भारत के "मंदिर" माने जाते थे। iFOREST के अध्यक्ष और सीईओ चंद्र भूषण ने दामोदर घाटी की वर्तमान स्थिति के बारे में बताया है। 

    उनके मुताबिक यह घाटी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को ऊर्जा देने का काम करती थी। देश को ऊर्जा देने वाली यह घाटी आज संकट के दौर में है। यह क्षेत्र एक गहरे विरोधाभास का प्रतीक बन गया है। कोयले और औद्योगिक ढांचे से भरपूर यह क्षेत्र कभी समृद्धि का आधार था।

    लेकिन इन्हीं संसाधनों से आज दम घुट रहा है। हवा जहरीली है, नदियां प्रदूषित हो रही है। जो आर्थिक मॉडल कभी स्थायी रोजगार का वादा करता था, वह अब अनिश्चितता पैदा कर रही है। जिन खदानों ने आधुनिक भारत को गढ़ा, उनका अस्तित्व संकट में है।

    अब आवश्यकता है दामोदर घाटी को तुरंत कोयला-आधारित अतीत से हरित आर्थिक भविष्य की ओर ले जाने का। वरना इसका पतन निश्चित है।

    इस गिरावट के प्रमाण हर ओर दिखते हैं। भारत की कोयला राजधानी कहे जाने वाले धनबाद की लगभग आधी खदानें बंद या निष्क्रिय हैं। 2030 तक 80% खदानें या तो समाप्त हो जायेंगी या लाभहीन हो जायेंगी। यह कहानी पूरी घाटी में दोहराई जा रही है।

    दामोदर बेसिन कभी भारत का सबसे बड़ा कोयला उत्पादक था, अब ओडिशा और छत्तीसगढ़ के कोलफील्ड्स से पीछे हो गया है। जिस झारखंड में कोयले का भंडार है, वह आज बिजली का शुद्ध आयातक बना हुआ है। झारखंड के पतरातू, बोकारो व प बंगाल के बंडेल और कोलाघाट के पुराने थर्मल पावर प्लांट बंद हो चुके हैं।

    अब भारत की कुल थर्मल पावर क्षमता का 5% से भी कम हिस्सा इस क्षेत्र में बचा है। यहां तक कि दामोदर वैली कॉरपोरेशन (डीवीसी) के बहुउद्देशीय बांध-जो बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई और हाइड्रोपावर के लिए बनाए गए थे, अब गाद से भर गए हैं। यहां से बिजली उत्पादन क्षमता नगण्य है।

    बाढ़ नियंत्रण की भूमिका भी कमजोर पड़ चुकी है। मैथन, पंचेत, कोनार और तिलैया जैसे बांधों की जलधारण क्षमता कम होने से पश्चिम बंगाल के कई हिस्सों में हर साल बाढ़ आती है।

    लेकिन यह केवल आर्थिक संकट नहीं है, बल्कि मानवीय संकट भी है। दो लाख से अधिक श्रमिक, जिन्होंने कोयला खदान और संयंत्रों में काम किया, आज बेरोजगारी के खतरे में हैं। इस क्षेत्र की कार्यबल भागीदारी दर पहले ही केवल 30% है, जो गंभीर चिंता का विषय है।

    यदि समय रहते विकल्प नहीं तैयार किए गए, तो एक विशाल सामाजिक और आर्थिक शून्यता की स्थिति उत्पन्न होगी। स्पष्ट है कि दामोदर घाटी का कोयला और भारी उद्योग पर आधारित विकास मॉडल अब समाप्त हो चुका है। हरित अर्थव्यवस्था अब विकल्प नहीं, बल्कि अनिवार्यता है।

    लेकिन इसी संकट में एक बड़ा अवसर छिपा हुआ है। जो संपत्तियां इस घाटी की औद्योगिक पहचान बनीं, वे अब इसके हरित भविष्य की नींव बन सकती हैं। मेरे सहयोगियों द्वारा किए गए हालिया मूल्यांकन से पता चलता है कि धनबाद, बोकारो और रामगढ़ जिले, जो घाटी के केंद्र में हैं, एक प्रमुख ग्रीन औद्योगिक कॉरिडोर बन सकते हैं।

    इस क्षेत्र में एक लाख हेक्टेयर से अधिक बंजर और खनन-प्रभावित भूमि है। पूर्वी भारत में सबसे तेज धूप की रोशनी यहां की जमीन पर पड़ती है। यहां 2030 तक 10 गीगावाट तक सौर ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है, जो झारखंड के 2027 के चार गीगीवाट लक्ष्य से कहीं अधिक है।

    मैथन, पंचेत और तेनुघाट के जलाशय फ्लोटिंग सोलर प्रोजेक्ट के लिए उपयोग किए जा सकते हैं। यह क्षेत्र हरित हाइड्रोजन उद्योग का केंद्र बन सकता है। भारत हाइड्रोजन-आधारित इस्पात और उर्वरक उत्पादन को बढ़ावा दे रहा है।

    धनबाद, बोकारो और रामगढ़ वाले क्षेत्र में पहले से स्टील और फर्टिलाइजर संयंत्र ढांचा मौजूद है। ग्रीन हाइड्रोजन, ग्रीन स्टील और ग्रीन फर्टिलाइज़र के लिए आदर्श केंद्र बन सकता है। साथ ही, बंद हो चुकी खदानों को सौर ऊर्जा फर्म, औद्योगिक पार्क या पर्यटन स्थलों में परिवर्तित कर स्थानीय रोजगार और आर्थिक विविधता को बढ़ाया जा सकता है। जिससे लाखों टिकाऊ नौकरियां सृजित हो सकती हैं।

    राष्ट्रीय राजमार्गों और रेलवे से मजबूत संपर्क और अमृतसर–कोलकता औद्योगिक कॉरिडोर की निकटता का फायदा मिल सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात इस क्षेत्र के युवाओं का जुझारू कार्यबल है, जो नए अवसरों के लिए तैयार है।

    इस संभावना को साकार करने के लिए एक न्यायपूर्ण और योजनाबद्ध रणनीति आवश्यक है। सबसे पहले, केंद्र सरकार को राज्यों के साथ मिलकर दामोदर घाटी के लिए एक नया प्लान तैयार करना चाहिए, जो पारंपरिक कोयला आधारित अर्थव्यवस्था से हरित विकास की रूपरेखा तैयार कर सके।

    धनबाद, बोकारो, रामगढ़ क्षेत्र के लिए एक समर्पित हरित विकास योजना इस दिशा में पहला कदम होना चाहिए। इसके साथ ही डीवीसी को एक हरित ऊर्जा कंपनी में बदलने की दिशा में काम करना चाहिए।

    सबसे महत्वपूर्ण बात है कि यह परिवर्तन न्यायसंगत होना चाहिए। श्रमिक और समुदाय इस कोयला अर्थव्यवस्था के स्तंभ रहे हैं, उन्हें पीछे नहीं छोड़ा जा सकता। इसके लिए अधिक राशि के निवेश की आवश्यकता होगी।

    सबसे जरूरी कौशल विकास, सामाजिक सुरक्षा और उद्यमिता विकास में निवेश की है। झारखंड सरकार को एक "जस्ट ट्रांजिशन नीति" की पहल करनी चाहिए, ताकि हरित अर्थव्यवस्था की ओर यह यात्रा समावेशी और न्यायपूर्ण हो।

    रूर का इतिहास इस मामले में एक प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत करता है। जर्मनी की रूर घाटी, जिसे दामोदर घाटी के समकक्ष माना जाता है, ने कोयला उद्योग के पतन से जूझते हुए समय रहते बदलाव का रास्ता चुना। उसने तकनीक, शिक्षा और संस्कृति में निवेश किया।

    2018 में रूर की आखिरी कोयला खदान बंद हुई, लेकिन आज वही पुराने औद्योगिक स्थल संग्रहालय, विश्वविद्यालय और हरित स्थलों में बदल चुके हैं। रूर ने कोयला आधारित अर्थव्यवस्था को एक विविधतापूर्ण क्षेत्र में बदल दिया।

    आज दामोदर घाटी भी उसी चौराहे पर खड़ी है। इसने देश को अपनी ऊर्जा, पर्यावरण और श्रम दिया है। लेकिन अब इस कोयला भंडार से होने वाली परेशानी और वैश्विक दबाव के यथार्थ को स्वीकार करना होगा। रूर हमें सिखाता है कि परिवर्तन को भाग्य पर नहीं छोड़ा जा सकता है।

    इसके लिए दृष्टिकोण, योजना और निवेश चाहिए। यदि भारत अभी निर्णायक कार्रवाई करता है, तो दामोदर घाटी पतन से बच सकती है। पूर्वी भारत के हरित संक्रमण की अगुआ बन सकती है।