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    5.5 करोड़ नौकरियां और देश की GDP में बड़ा योगदान, सहकारिता कैसे विकसित भारत की तस्वीर बदल रहा?

    Updated: Tue, 08 Jul 2025 08:52 PM (IST)

    स्कूल और विश्वविद्यालयों में सहकारी सिद्धांतों और मूल्यों को शामिल करना चाहिए। इससे युवा दिमागों में सामूहिक सोच और लोकतांत्रिक उद्यमिता के बीज बोए जा सकते हैं। सहकारी क्षेत्र के नेताओं को न केवल बैलेंस शीट समझने की जरूरत है बल्कि सहयोग समानता और साझा उद्देश्य की भावना को भी समझना होगा।

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    सहकारिता कैसे विकसित भारत की तस्वीर बदल रहा

     नई दिल्ली। भारत में सफेद क्रांति को ऑपरेशन फ्लड के नाम से जाना जाता है। इस क्रांति का उद्देश्य भारत में दूध के उत्पादन को बढ़ाना और विश्व का सबसे बड़ा उत्पदाक बनाना था। आगे चलकर सहकारिता ने भारत के अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान दिया है। इसने ग्रामीण इलाकों को आत्मनिर्भर बनाने का काम किया।

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    2018 में प्रकाशित भारतीय सहकारी आंदोलन की रिपोर्ट के आंकड़ों से पता चलता है कि सहकारी समितियों द्वारा प्रत्यक्ष रोजगार 2007-08 में 1.2 मिलियन से बढ़कर 2016-17 में 5.8 मिलियन हो गया, जो 18.9 प्रतिशत की CAGR को दर्शाता है। रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक सहकारिता 5.5 करोड़ नौकरियां देगा।

    प्राइमस पार्टनर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, सहकारी समितियों में लाखों नौकरियां जोड़ने और 2030 तक देश के सकल घरेलू उत्पाद में 3 प्रतिशत से 5 प्रतिशत के बीच महत्वपूर्ण योगदान देने की क्षमता है। प्रत्यक्ष और स्वरोजगार दोनों अवसरों के सृजन में उनका सिद्ध ट्रैक रिकॉर्ड उन्हें भारत की आर्थिक यात्रा में एक परिवर्तनकारी शक्ति के रूप में स्थापित करता है।

    1991 में आर्थिक संकट से जूझने के बाद भारत ने अपने बाजार को राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था से मुक्त, बाजार-आधारित मॉडल की ओर बड़ा कदम उठाया। इस कदम ने आर्थिक आर्थिक विकास, विदेशी निवेश और वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत को आगे बढ़ाया। आर्थिक सुधार के लिए उठाए गए कदम की वजह से निजीकरण और व्यापार बाधाओं को कम करने जैसे सुधारों ने औद्योगिक विस्तार और सेवा क्षेत्र की प्रगति को बढ़ावा मिला। इससे भारत की GDP में वृद्धि हुई।

    एक तरफ भारत आर्थिक विकासतो कर रहा था लेकिन आय असमानता और सामाजिक-आर्थिक अंतर भी बढ़ रहा था। उदारीकरण का लाभ बड़े कॉर्पोरेट्स, वित्तीय संस्थानों और महानगरों में रहने वालों को मिला। लेकिन ग्रामीण आबादी, विशेष रूप से कृषि और अनौपचारिक आजीविका पर निर्भर लोग, इस विकास में पीछे छूटते जा रहे थे। उन्हें विकास की मुख्य धारा में लाने का काम सहकारिता ने किया।

    आर्थिक उदारीकरण के दौर में जब विकास की चकाचौंध में ग्रामीण इलाके पीछे छूटने लगते हैं तो सहकारिता एक विकल्प के रूप में उभरती है, जो न केवल आर्थिक संस्थान है, बल्कि समावेशी और लोकतांत्रिक धन सृजन का साधन भी है।

    अगर हम इसे एक उदाहरण से समझें तो जब रिलायंस इंडस्ट्रीज जैसी कंपनी 12 लाख करोड़ रुपये के वैल्युएशन को छूती है तो उसका प्रॉफिट सिर्फ उसके शेयरधारकों तक रही सीमित रहता है। लेकिन जब अमूल जैसी डेयरी सहकारी ₹90,000 करोड़ का सालाना का टर्नओवर करती है तो यह पैसा लाखों किसानों में बंटता है।

    भारत में सहकारिता मंत्रालय का गठन करना एक क्रांतिकारी कदम है। मंत्रालय सहकारी आंदोलन के लाभ को किसानों, ग्रामीण उद्यमियों और ग्रामीण महिलाओं तक पहुंचाने की क्षमता रखता है।

    माननीय सहकारिता मंत्री श्री अमित शाह का दृष्टिकोण महत्वाकांक्षी और प्रशंसनीय है। उनका मंत्रालय सहकारी मॉडल को समावेशी विकास, आत्मनिर्भरता और ग्रामीण सशक्तिकरण के लिए शक्तिशाली साधन बनाने का लक्ष्य रखता है।

    इसे बड़े पैमाने पर लागू करने के लिए केवल सिर्फ इच्छाशक्ति ही काफी नहीं। इसके लिए त्रिभुवनदास पटेल जैसी सामाजिक पूंजी और सहकारी भावना, सरदार वल्लभभाई पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं की राजनीतिक दृष्टि, और डॉ. वर्गीज कुरियन जैसी आर्थिक प्रतिभा और प्रबंधकीय नवाचार की भी जरूरत है।

    IRMA जैसे संस्थानों से आर.एस. सोढ़ी, जयेन मेहता और डॉ. मीनेश शाह जैसे सहकारी CEO तैयार हो सकते हैं। लेकिन, सहकारी आंदोलन की जान—जमीनी स्तर की सामाजिक पूंजी—को धीरे-धीरे, व्यवस्थित और निरंतर तरीके से विकसित करना होगा।

    IRMA और अमूल जैसे संस्थान भारत के सहकारी आंदोलन के लिए बहुत बड़े प्रेरणा स्रोत हैं। ये संस्थान दिखाते हैं कि पेशेवर प्रबंधन और लोकतांत्रिक शासन मिलकर समावेशी और टिकाऊ विकास मॉडल कैसे बना सकते हैं। गुजरात के इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट आनंद ने पेशेवर प्रशिक्षित प्रबंधकों की एक ऐसी टीम तैयार की है, जो जमीनी संगठनों में प्रबंधकीय कुशलता, व्यवस्थित सोच और नैतिक नेतृत्व लाते हैं।

    इस संस्थान के पूर्व छात्र देशभर के सहकारी और विकास संस्थानों को मजबूत करने का काम किया है। अमूल इस बात का उदाहरण है कि सहकारी संस्थाएं अपने सदस्यों के हितों को केंद्र में रखते हुए बड़े पैमाने पर कामयाब का रास्ता तय कर सकती हैं।

    सहकारिता के सफलता का आधार लोकतांत्रिक शासन, जिसमें किसान समुदाय के चुने हुए नेता शामिल हैं। सहकारिकता न केवल धन का समान बंटवारा करता है बल्कि यह ग्रामीण और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं में निवेश भी करता है।

    अमूल भारत का एक आत्मनिर्भर ग्रामीण उद्यम का प्रतीक बन चुका है। IRMA और अमूल जैसे संस्थान मिलकर सहकारी मॉडल की परिवर्तनकारी शक्ति को दर्शाते हैं।

    जमीनी स्तर पर, किसान उत्पादक संगठनों (FPOs) और सहकारी समितियों को संगठित करने का मौजूदा दृष्टिकोण अक्सर एनजीओ-नेतृत्व वाले मिशन-मोड पर आधारित होता है। इससे पैमाना तो हासिल हुआ है, लेकिन इसमें सबसे महत्वपूर्ण तत्व मूल्यों की कमी रह जाती है।

    सहकारिता की दिशा में त्रिभुवन सहकारी विश्वविद्यालय की स्थापना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध, नैतिक रूप से मजबूत और प्रबंधकीय रूप से सक्षम नेताओं को तैयार करने का केंद्र बन सकता है। यहां से निकले छात्र सहकारिता आंदोलन को आगे लेकर जाने का काम करेंगे। यह विश्वविद्यालय शांत क्रांति का केंद्र बन सकता है।

    ऐसे समय में, जब आर्थिक विकास अक्सर सामाजिक विभाजन के साथ आता है, सहकारिता एक ऐसा मॉडल पेश करती है, जो लोकतांत्रिक होने के साथ-साथ कुशल भी है। अब समय है कि इस मॉडल को न केवल आर्थिक साधन के रूप में, बल्कि नैतिक और सामाजिक आवश्यकता के रूप में फिर से अपनाया जाए।

    नोट- यह लेख Institute of Rural Management Anand के प्रोफेसर और को-ऑर्डिनेटर राकेश अर्रावटिया द्वारा लिखा गया है।

     

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