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    West Champaran: धीरे-धीरे बदली परंपरा, अब न बजती मिट्टी की घंटी, खत्म हुई जांता की समृद्धि

    By Jagran NewsEdited By: Dharmendra Kumar Singh
    Updated: Sun, 23 Oct 2022 04:59 PM (IST)

    West Champaran घर में अनाज की कमी न हो इसलिए खरीदते थे मिट्टी के बने जांता। घंटी से मवेशियों के शरीर पर लगाए जाते थे छापे। कुम्हार एक टोकरी में दीयों के साथ ये सारे मिट्टी के पात्र लेकर आता था।

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    लोगों के घरोंं में अब मिट्टी की घंटी। प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

    पश्‍चिम चंपारण {प्रदीप दुबे}। मिट्टी से बनी रंगीन घंटी, जिसे बजाते हुए पूरे दिन घर में धमा चौकड़ी मचाते थे...घंटी ही क्यों, जांता जिसमें मिट्टी डाल उसे पीसने के जतन करते रहते, ओखल-मूसल, चूल्हा, पलटा, कढ़ाई, कटोरियां, सब्जी परोसने वाले पात्र ये सब कुछ ही तो थे, जिनसे हमारी दीपावली की खुशियां दोगुनी होती थीं। कुम्हार एक टोकरी में दीयों के साथ ये सारे मिट्टी के पात्र लेकर आता। इसके बदले उन्हें अनाज दिए जाते थे। अब ये परंपराएं ओझल होती जा रही हैं।

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    मिट्टी के दीयों का चलन तो बढ़ गया है, लेकिन जांता, घंटी और गृहस्थी के सामान अब बहुत कम ही देखने को मिलते हैं। कुछ जगहों पर बाजार में ये सारे मिट्टी के पात्र सौ रुपये में बिक रहे हैं, लेकिन इन्हें खरीदने वाला कोई नहीं। जबकि डेढ दो दशक पहले तक दीपावली पर मिट्टी की घंटी का काफी महत्व था। मवेशियों की समृद्धि में इसे खास माना जाता था। पहले हर दरवाजे पर मवेशी हुआ करते थे। इन घंटियों से मवेशियों के शरीर पर छाप लगाए जाते थे। उसके बाद वह घंटी मवेशियों के गले में बांधा जाता था या फीर बच्चे उससे खेलते थे। हर घर में दीये के साथ जांता खरीदने की परंपरा थी। गोवर्धन पूजा में उस जांते को रखा जाता था। उसमें अनाज भी डाले जाते थे ताकि घर में कभी अनाज की कमी न हो।

    अनाज और मवेशियों की थी महत्ता

    बुजुर्ग राजेश्वर साह, रामबालक यादव, रामेश्वर प्रसाद और हरिश्चंद्र प्रसाद कहते हैं दो दशक पहले तक कुम्हार दीपावली से पहले हर घर में मिट्टी के दीयों के साथ जांता, घंटी के अलावा रसोई के सारे पात्र पहुंचा जाया करते थे। बिना घंटी व जांता के पर्व नहीं मानता था। इसका उद्देश्य यह था कि घर हमेशा अनाज और बर्तनों से भरा-पूरा रहे। किसी चीज की कोई कमी न हो। मवेशी स्वस्थ रहे। अब लोग पुरानी परंपरा को भूल गए हैं। कुम्हार हरिनाथ पड़ित कहते हैं, लोग घर की समृद्धि के लिए घंटी, जांता खरीदते थे। अब तो सौ रुपये में जांता-घंटी, ओखल-मूसल के साथ रसोई के पूरे सेट मिल रहे हैं फिर भी ग्राहक नहीं हैं। इसके बदले हमें अनाज और पैसे मिलते थे। इससे हमारी अच्छी कमाई हो जाती थी।