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    दीपों के त्योहार पर झालर-मोमबत्ती ने किया दीयों को लाचार, पुस्तैनी पेशा छोड़ रहे कुम्हार, सुनाया अपना दर्द

    By Sunil TiwariEdited By: Aysha Sheikh
    Updated: Fri, 10 Nov 2023 03:19 PM (IST)

    दिवाली की तैयारियां कई दिन पहले से ही शुरू हो जाती है। लोग घरों को सजाने के लिए तरह-तरह का सामान लेकर आते हैं। लोग आजकल झालर और लाइटों के पीछे ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं जिसकी वजह से दीपों के त्योहार पर दीपों का ही महत्व खत्म सा होता नजर आ रहा है। अब लाखों की संख्या में बनने वाले दीये हजारों की संख्या में बनने लगे हैं।

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    मैनाटांड़ के बेलवाटोला गांव में चाक पर दीपक बनाता कुम्हार

    संवाद सूत्र, मैनाटांड़ (पश्चिम चंपारण)। दीपावली की तैयारी कई दिन पहले से ही शुरू हो जाती है। घर की साफ-सफाई से लेकर रंगाई-पोताई का काम अंतिम दौर में है। दीपावली पर बाजार भी सजने लगा है। घर-घर मिट्टी के दीये जलाये जाते हैं।

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    ऐसे में, मिट्टी के दीये बनाने वाले कुम्हार दुकान लगा रहे हैं। हालांकि, अब इलेक्ट्रॉनिक आइटम झालर और मोमबत्ती ने दीयों और कुम्हारों को लाचार कर दिया है।

    वरीय समाजसेवी रामचंद्र प्रसाद ने बताया कि पहले दीपावली पर घर-घर में मिट्टी के दीपक में तेल और बाती से जगमग रोशनी हुआ करती थी, लेकिन अब वह रौशनी धीरे धीरे खत्म होने की कगार पर है। लोग मिट्टी के दीयों की जगह इलेक्ट्रॉनिक आइटमों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं।

    लोग झालर और मोमबत्ती का ज्यादा प्रयोग करते हैं, जबकि पहले दीपावली पर दीयों की मांग अधिक रहती थी। बेलवा टोला निवासी कुम्हार अर्जुन ने बताया कि यह मेरा पुस्तैनी पेशा है। बाप- दादा के जमाने में एक माह पहले से मिट्टी के दीये बनने लगते थे। अब वह बात नहीं है। इस वर्ष मात्र पांच हजार मिट्टी के दीये बने हैं। उसकी बिक्री भी मंदी है।

    कम बनने लगे मिट्टी के दीये

    अब दीपावली पर लाखों की संख्या में बनने वाले दीये हजारों की संख्या में बनने लगे हैं। पहले दीपावली पर मिट्टी के दीये की बाजार में डिमांड भी थी, लेकिन अब वह डिमांड धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है।

    कुम्हार का व्यापार और कला खत्म होती जा रही है। कुम्हार गौरी शंकर ने बताया कि पुस्तैनी कारोबार से परिवार का भरण पोषण संभव नहीं है। युवा पीढ़ी इस कारोबार से नाता तोड़ हो रही है।

    अब आसानी से मिटटी भी नहीं मिलती

    कुम्हार रमेश ने बताया कि पहले शहर के बाहर निकलते ही मिट्टी मिल जाती थी लेकिन अब शहरों की आबादी बढ़ने के साथ खाली जगह पर कॉलोनियां बन गई हैं। ऐसे में अब खली जगह नहीं रहने से मिट्टी की समस्या से जूझना पड़ता है।

    मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए मिट्टी बाहर से मंगानी पड़ती है, जो मिट्टी की ट्राली पहले 500 रुपये में मिल जाती थी। अब वही मिट्टी की ट्रॉली 1500 रुपये की आती है। दीयों को पकाने के लिए गोबर के उपलों की जरुरत पड़ती है, जिसकी कीमत भी बढ़ गई है।

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