Bettiah News: कभी जीवन में मिठास घोलता था गन्ना... मिल ने भर दी कड़वाहट; हजारों मजदूरों ने गंवाई नौकरी
किसान बताते हैं कि चीनी मिल बंद होने से किसानों की अर्थव्यवस्था बिगड़ गई। गन्ना और मिल दोनों आर्थिकी के बड़े तंत्र थे। मिल बंद होने के बाद कुछ वर्षों तक किसान नरकटियागंज मझौलिया लौरिया या रामनगर गन्ना ले गए। इसमें भी उन्हें कई मुश्किलें हुईं। एक तो वे दूसरी मिलों के पोषक क्षेत्र के थे। पुर्जी देने गन्ना खरीद और भुगतान में उन्हें दूसरी प्राथमिकता मिलती थी।

मनोज मिश्र, बेतिया (पश्चिमी चंपारण)। एक दौर में किसानों को बेटे-बेटियों की अच्छी शिक्षा, विवाह, मकान, दवा-उपचार और जरूरत के हर खर्च के लिए चिंता नहीं होती थी। धान-गेहूं और तेलहन-दलहन से घर में खाद्यान्न आ जाते थे और गन्ने से बैंक खाते में ठीक-ठाक पैसे जमा हो जाते थे। इससे पश्चिम चंपारण के चनपटिया इलाके का हर किसान परिवार पूरा साल संतोषजनक जीवन जी लेता था। यह दौर 1932 से लेकर 1994 तक (62 साल) चला और किसान संतुष्ट रहे। इसका बड़ा आधार चनपटिया चीनी मिल था।
1994 के बाद यहां सबकुछ बदलने लगा। चीनी मिल बंद हो गई। इसका परिणाम हुआ कि किसानों ने गन्ने की खेती छोड़ दी। उनके सपनों पर ग्रहण लग गया। घर-गृहस्थी के अलावा कृषि कार्य निवेश जो सरल और सहज था, वह मुद्दा बनने लगा। जो किसान साल भर पूरा खर्च करने के बाद बेटी की शादी या बेटे की पढ़ाई के लिए कुछ पूंजी बैंक में सहेज लेते थे, उनके खाते खाल खाली होने लगे। बाद के दिनों में शादी के लिए बड़े किसानों या साहूकारों से मोटे ब्याज पर कर्ज लेने लगे।
चीनी मिल बंद होने से असंतुलित हुई अर्थव्यवस्था
चनपटिया के किसान मंगल प्रसाद बताते हैं कि चीनी मिल बंद होने से किसानों की अर्थव्यवस्था बिगड़ गई। गन्ना और मिल, दोनों आर्थिकी के बड़े तंत्र थे। मिल बंद होने के बाद कुछ वर्षों तक किसान नरकटियागंज, मझौलिया, लौरिया या रामनगर गन्ना ले गए। इसमें भी उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। एक तो वे दूसरी मिलों के पोषक क्षेत्र के थे। पुर्जी देने, गन्ना खरीद और भुगतान में उन्हें दूसरी प्राथमिकता मिलती थी।
दूसरी, अन्य मिलों पर गन्ना ले जाने में किराया खर्च बढ़ जाता था। चीनी मिल पर बिक्री में समय लगने पर गन्ने का वजन भी कम हो जाता था। इससे किसानों का गन्ने की खेती से मोहभंग होने लगा। ऐसे में किसान गन्ने की खेती छोड़ने लगे। अब तो यहा नाम भर की खेती रह गई है।

चीनी मिल परिसर में उगी झाड़ी। फोटो- जागरण
किसान कृष्णा महतो बताते हैं कि इस इलाके में गन्ना एकमात्र नकदी और व्यावसायिक फसल थी। मिल बंद होने के बाद यहां के संपन्न किसान भी कंगाली के दौर से गुजर रहे हैं। चीनी मिल बंद होने से यहां का स्थानीय बाजार भी प्रभावित हुआ। मिल में काम करनेवाले कर्मियों और किसानों के आने-जाने से जो बाजार गुलजार रहता था, अब वीरान हो गया है। 32 हजार एकड़ में गन्ने की खेती 15 हजार में सिमट गई। लगभग 20 हजार किसान परिवारों की नकदी फसल छीन गई।
1990 में दुर्दिन शुरू
चनपटिया चीनी मिल की स्थापना 1932 में हुई थी। यह बिहार की पुरानी चीनी मिलों में एक थी। 1990 से इस चीनी मिल के दुर्दिन शुरू हो गए और वित्तीय घाटा बताकर 1994 के आते-आते इसमें ताला लग गया। 1998 में को-आपरेटिव के माध्यम से इसे चालू करने की कोशिश की गई थी, लेकिन यह प्रयोग सफल नहीं हो सका। अब यह जर्जर और खंडहर हो चुकी है। उपकरण बेकार हो गए हैं। इसकी 200 एकड़ जमीन पर अतिक्रमणकारियों की नजर गड़ गई है। हजारों मजदूरों की नौकरी व दिहाड़ी चली गई। आज भी इस मिल के पास किसानों व मजदूरों का करोड़ों रुपये बकाया है।
रह गया चुनावी मुद्दा
समाजसेवी ओमप्रकाश क्रांति का कहना है कि चीनी मिल चुनावी मुद्दा बनकर रह गई है। नेताओं को सिर्फ चुनाव के वक्त ही इसकी याद आती है। किसान की स्थिति नहीं दिखती। किसान श्रीकांत मिश्र का कहना है कि चुनाव में चीनी मिल चालू करने का आश्वासन दिया जाता है चुनाव बाद फिर अगले चुनाव के लिए टल जाता है।

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