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    सारी कोशिश बेकार, नहीं छूटा लकड़ी वाले चूल्हे का साथ

    By JagranEdited By:
    Updated: Wed, 26 Jun 2019 12:14 AM (IST)

    वाल्मीकि नगर। महिलाओं को चूल्हे के धुएं से मुक्ति दिलाने के लिए केंद्र सरकार प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना चला रही है। इसके तहत गरीब महिलाओं को निश्शुल् ...और पढ़ें

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    सारी कोशिश बेकार, नहीं छूटा लकड़ी वाले चूल्हे का साथ

    वाल्मीकि नगर। महिलाओं को चूल्हे के धुएं से मुक्ति दिलाने के लिए केंद्र सरकार प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना चला रही है। इसके तहत गरीब महिलाओं को निश्शुल्क रसोई गैस कनेक्शन दिया जा रहा है। बावजूद इसके गरीब महिलाओं को धुएं से मुक्ति नहीं मिल सकी है। अधिकांश गरीब महिलाएं सिलेंडर में रसोई गैस खत्म होने के बाद उसे दोबारा भराने में सक्षम नहीं हैं। कुछेक को एजेंसी से अभी तक गैस कनेक्शन का बुकिग नहीं मिल पाई है। ऐसे में, इन महिलाओं को फिर से चूल्हे के धुंए के बीच भोजन बनाना पड़ रहा है। प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत बीपीएल परिवारों को निश्शुल्क एलपीजी कनेक्शन दिया गया है । यह व्यवस्था वनवर्ती गावों में वनों पर निर्भरता कम करने एवं गरीब परिवारों की चूल्हे से धुआं रहित स्वच्छ ईंधन पर भोजन पकाने की व्यवस्था करने की कोशिश की गई है। लेकिन, हकीकत कुछ और ही है। वीटीआर के वनवर्ती गांवों में अधिकांश घरों की रसोई में एलपीजी सिलेंडर से भोजन नहीं पक रहा है। ये महिलाएं अब भी मिट्टी के चूल्हे से निकलता धुआं अपनी सांसों में ले जाने को मजबूर हैं। जिससे एक ओर समस्या जस की तस बनी हुई है, वहीं वीटीआर के वन्य जीवों पर संकट के बादल छाने लगे हैं ।

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    मुफ्त में मिल रही लकड़ी तो क्यों भराएं गैस

    उज्ज्वला योजना के तहत एक बार गैस कनेक्शन देने के बाद अधिकारियों ने अपनी जिम्मेदारी खत्म कर ली। जिस परिवार वह दोबारा रिफिलिग करा रहा है या नहीं, इसकी मॉनीटरिग करने की कोई व्यवस्था नहीं है। वीटीआर के वनवर्ती गांवों में अब भी ऐसे कई परिवार हैं, जिनके घर में उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन तो पहुंचा। लेकिन, रसोई में खाना लकड़ी से ही बनता है। इसके लिए इन परिवारों की माली हालत तो जिम्मेदार है ही। साथ ही ये भी कहा जा सकता है कि लोगों की सोच बदलने की भी जरूरत है। उपभोक्ता मालती देवी ने बताया कि मेरे पास एलपीजी गैस कनेक्शन तो है लेकिन हम अब भी लकड़ी के चूल्हे पर ही खाना बनाते हैं। सिर्फ उनके घर में नहीं बल्कि पूरे गांव में अब भी ज्यादातर लकड़ी के चूल्हे पर ही खाना पकाया जाता है। वह कहती हैं कि गांव में लोगों की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं कि एक गैस सिलेंडर को एक ही महीने में खर्च कर दिया जाए। घर में चौदह किलो का एक सिलेंडर चार से पांच महीने चल जाता है। वनवर्ती गांवों में ये बात अच्छी नहीं मानी जाती कि मुफ्त की लकड़ी होते हुए गैस के चूल्हे पर खाना पकाया जाए। जबकि जंगल से लकड़ी लाना बेहद श्रम का कार्य है।

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    बरसात में बढे़गा गैस रिफिलिग

    गैस एजेंसी के संचालक का कहना है कि कोई दो-तीन महीने में सिलेंडर रिफिलिग के लिए आता है तो कई ऐसे भी हैं जो चार-छह महीने के अंतराल पर रिफिलिग के लिए आते हैं। वनवर्ती गांवों में अब भी ज्यादातर घरों में लकड़ी का चूल्हा जलाया जाता है। ठंड से बचने के लिए भी लोग लकड़ी का चूल्हा जलाते हैं । जिससे घर गर्म रहता है। फिर लकड़ी मुफ्त में मिल जाती है। गांवों में तकरीबन हर घर में पशु होते हैं। पशुओं के चारे के इंत•ाम के लिए लोग जंगल जाते ही हैं, वहां से चूल्हा जलाने की लकड़ियां भी ले आते हैं। बरसात में गैस सिलेंडर की मांग इसलिए अधिक होती हैं क्योंकि तब लकड़ियां भींगी होती हैं और लकड़ी के चूल्हे पर खाना पकाना आसान नहीं होता है ।

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    इनसेट बयान :

    ये सरकार की बेहद महत्वाकांक्षी योजना है। इसके लिए सामाजिक जागरूकता आवश्यक है। जब तक लोग जागरूक नहीं होंगे, तब तक यह योजना सफल नहीं होगी। सरकारी स्तर से भी इसके लिए जागरूकता फैलाई जा रही है।

    -- धीरेंद्र प्रताप सिंह उर्फ रिकू सिंह, विधायक , वाल्मीकिनगर

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