हलाहल पीने के बाद विश्व शांति को लेकर देवताओं ने किया था शिव का जलाभिषेक
बगहा । शास्त्रों में वर्णित तथ्यों के अनुसार पवित्र श्रावण मास में ही समुद्र मंथन किया गया था।
बगहा । शास्त्रों में वर्णित तथ्यों के अनुसार पवित्र श्रावण मास में ही समुद्र मंथन किया गया था। जिसके बाद हलाहल विष निकला। जगदीश्वर श्री भोलेनाथ ने उसका पान किया था। उसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए उन्होंने विष को अपने गले में ही रोक दिया था। जिससे उनका गला नीला पड़ गया। इसके बाद से ही महादेव को नीलकंठ भी कहा जाता है। तब उसके प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवताओं ने भगवान का जल से अभिषेक किया था। इसी कारण जगदीश्वर शिव को जलाभिषेक अत्यधिक प्रिय है। सावन का महीना भी उन्हें काफी प्रिय है। सावन से पहले आषाढ़ महीने में देवशयनी एकादशी होती है। ऐसी मान्यता है कि उस दिन विष्णु भगवान शयन करने चले जाते हैं। तब मृत्यु लोक की संपूर्ण व्यवस्था शिव की देखरेख में ही रहती है। इस चार महीने का चतुर्मास भी इसी मध्य होता है। जिसको सावन कहा गया है। इसका व्यावहारिक कारण यह है कि यह समय बरसात का होता है और प्रारंभ में आवागमन की सुविधाएं नहीं होती थी इसलिए संत महात्मा इन महीनों में कहीं एक जगह रुक कर भजन व पूजन किया करते थे। आज भी इस चातुर्मास में संत तपस्या करते हैं जिसकी शुरुआत देवशयनी एकादशी से हो जाती है। इस अवसर पर अधिकतर पार्थिव पूजन की परंपरा है। शिव पुराण में वर्णन है कि कलयुग में पार्थिव पूजन का विशेष महत्व है। सतयुग द्वापर त्रेता तीनों युगों में अलग-अलग प्रकार के शिवलिग के पूजन का विधान है।
अयोध्या धाम के आचार्य शिवेंद्र जी महाराज ने बताया कि सतयुग में स्वर्ण लिग, द्वापर में रत्न लिग, द्वापर में पारे के लिग तथा कलियुग में पार्थिव पूजा (मिट्रटी-पत्थर) निर्मित लिग पूजन का विधान शिवपुराण में बताया गया है। ऐसी मान्यता है कि पूरी दुनिया में व्याप्त शिव मंदिरों में स्थापित शिव लिग पर सालों भर जलाभिषेक करने की परंपरा से ही विश्व में शांति व्याप्त है।
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