Chandra Grahan 2025: चंद्र ग्रहण के दौरान क्या करना चाहिए और क्या नहीं? पंडित जी ने डिटेल में बताया
भाद्र पूर्णिमा पर चंद्र ग्रहण का योग है जो 7 सितंबर को लगेगा। आचार्य धर्मेंद्रनाथ मिश्र ने बताया कि पृथ्वी की छाया के कारण चंद्र ग्रहण होता है। पौराणिक कथाओं में राहु नामक दैत्य द्वारा चंद्रमा को पीड़ा पहुंचाने का उल्लेख है। ग्रहण काल में कुछ कार्य वर्जित हैं जबकि स्नान दान और जप जैसे कर्म शुभ फलदायी होते हैं।

संवाद सूत्र, करजाईन बाजार (सुपौल)। भाद्र पूर्णिमा को इस बार चंद्र ग्रहण का योग बना है। ग्रहण का योग खग्रास है। 7 सितंबर यानि रविवार को स्पर्श रात्रि के 9 बजकर 58 मिनट पर तथा 1 बजकर 26 मिनट पर मोक्ष है।
चंद्र ग्रहण के विज्ञानी व आध्यात्मिक रहस्य पर प्रकाश डालते हुए आचार्य पंडित धर्मेंद्रनाथ मिश्र ने बताया कि सूर्य बिंब के बड़े होने तथा पृथ्वी के छोटे होने के कारण पृथ्वी की परछाई हमारी परछाई की भांति नहीं होकर काले शंकू के समान सूक्ष्माकर होकर चंद्रकक्षा को पारकर बहुत दूर तक निकल जाती है।
आकाश में फैली हुई पृथ्वी की यह छाया घटती-बढ़ती रहती है। शंकू समान इस प्रच्छाया के साथ ही शंकू के ही समान उपच्छाया भी रहती है। चंद्रमा अपने भ्रमण पथ पर चलते हुए जैसे ही प्रच्छाया के समीप आ जाता है वैसे ही उनपर ग्रहण प्रतीत होने लगता है।
जब उनका संपूर्ण मंडल प्रच्छाया के भीतर आ जाता है तब पूर्ण चंद्र ग्रहण लग जाता है। संपूर्ण चंद्र के ढकने की अवस्था में सर्वग्रास चंद्र ग्रहण और अंशतः ढकने पर खंड चंद्र ग्रहण होता है।
आचार्य ने बताया कि पृथ्वी और चंद्रमा के मार्ग एक सतह में नहीं हैं। ये एक-दूसरे के साथ पांच अंश का कोण बनाते हैं, जिससे ग्रहण का अवसर प्रत्येक पूर्णिमा को नहीं होता है।
पूर्णिमा के अंत में चंद्रमा भी सूर्य से छह राशि के अंतर पर रहते हैं, इसलिए पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए चंद्रमा जिस पूर्णिमा को पृथ्वी की छाया में आ जाता है अर्थात पृथ्वी की छाया चंद्रमा की बिंब पर पड़ती है। उसी पूर्णिमा को चंद्र ग्रहण होता है और जो छाया चंद्रमा पर दिखाई पड़ती है, वहीं खग्रास कहलाती है।
पौराणिक श्रुति का जिक्र करते हुए आचार्य ने कहा कि राहु नामक एक दैत्य चंद्र ग्रहण काल में ही पृथ्वी की छाया में प्रवेश कर चंद्रमा को पीड़ा पहुंचाता है, इसलिए यह राहुकृत ग्रहण भी कहलाता है। इस काल में स्नान, दान, जप, होम आदि अनुष्ठान कर्म करने से राहुग्रह कृत पीड़ा दूर होती है।
आचार्य ने बताया कि ग्रहण काल में भोजन, शयन, गोदोहन, क्षेत्रभ्रमण, वनस्पतिच्छेदन, हलचालन, मलमूत्र त्यागादि, देवमूर्ति का स्पर्श निषिद्ध यानि वर्जित रहता है। साथ ही गंगा स्नान या सामान्य जल में भी स्नान, दान, जप, होम तथा पितरों की प्रसन्नता के लिए श्राद्ध कर्म करने से अनंतानंत फलों की प्राप्ति होती है।
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