सत्य के बचाव में इमाम हुसैन हुए कर्बला में शहीद
रिजवानुर रहमान, मैरवा (सिवान): पैगंबर -ए- इस्लाम हजरत मोहम्मद( सल) के नवासे और हजरत अली के एक पुत्र
रिजवानुर रहमान, मैरवा (सिवान): पैगंबर -ए- इस्लाम हजरत मोहम्मद( सल) के नवासे और हजरत अली के एक पुत्र इमाम हसन को दुश्मनों ने जहर दे दिया। इसके बाद उमय्या वंश के अमीर मुआविया के पुत्र यजीद ने जबरन अपने को खलीफा घोषित कर दिया। वह नाम मात्र का मुसलमान था। उसने नबी हजरत मुहम्मद के नवासे हजरत इमाम हसन के भाई हजरत इमाम हुसैन को अधीनता स्वीकार करने का आदेश दिया। साथ ही कहा कि वह जो कहे इस्लाम में शामिल किया जाए। वह हजरत मोहम्मद के दीन इस्लाम में बदलाव करना चाहता था। इमाम हुसैन ने उसकी अधीनता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। 4 मई 680 ईसवीं को इमाम हुसैन मदीना से अपना घर छोड़कर मक्का पहुंचे। वहां यजीद के लिए उन्होंने ना किसी से बैय्यत ली और न ही अपने पूर्व के निर्णय में कोई परिवर्तन लाया। कूफा के लोगों को जब मालूम हुआ कि वे मक्का आ चुके हैं तो उन्होंने एक-एक कर 52 पत्र इमाम हुसैन को लिखकर कूफा आने का बुलावा भेजा। पत्र के जवाब में इमाम हुसैन ने लिखा- आप लोगों के मोहब्बत एवं अकीदत का ख्याल करते हुए फिलहाल भाई मुस्लिम बिन अकील को कूफा भेज रहा हूं। अगर उन्होंने देखा कि कूफा के हालात सामान्य है तो मैं भी चला आऊंगा। हजरत मुस्लिम अपने दो छोटे बेटा मोहम्मद और इब्राहिम को साथ लेकर कूफा पहुंचे। वहां उनका लोगों ने मोहब्बत के साथ स्वागत किया। उन्होने बैय्यत शुरू की। एक हफ्ता के अंदर बारह हजारों लोगों ने मुस्लिम के हाथों इमाम हुसैन की बैय्तय (अधीनता) कबूल की। कूफा के हालात सामान्य देखकर मुस्लिम इमाम हुसैन को पत्र भेजा कि कूफा के लोग अपने वचन पर कायम हैं। इधर यजीद को जब यह मालूम हुआ तो उसने कूफा के गवर्नर को हटाकर सय्याद को गवर्नर नियुक्त कर दिया और मुस्लिम को गिरफ्तार कर खत्म करने तथा हुसैन के आने पर यजीद की बैय्यत तलब करने को कहा। इन्कार करने पर उन्हें भी कत्ल करने का आदेश दे दिया। मुस्लिम को कत्ल कर दिया गया। उधर मुस्लिम का पत्र पाकर इमाम हुसैन अपने परिवार और खानदान के साथ कूफा के लिए रवाना हो गए।वहां पहुंचे तो देखा सब कुछ बदला हुआ था। दुश्मन फौज ने उन्हें घेर लिया और कर्बला ले गए। उस समय दुश्मन फौज प्यासी थी। इमाम हुसैन ने उन्हें पानी पिलाया। इमाम हुसैन कर्बला में फुर्रात नदी के किनारे खेमा (तंबू) डाला। इसके पहले उस जमीन को उन्होंने खरीदा। उधर यजीद अपने सरदारों से द्वारा इमाम हुसैन पर अधीनता स्वीकार करने के लिए दबाव बनाया, लेकिन किसी भी तरह की शर्त मानने से इन्कार कर दिया। दबाव बढ़ाने के लिए यजीद ने फुर्रात नदी और
नहरों पर फौज का पहरा बैठा दिया। ताकि हुसैनी लश्कर को पानी नहीं मिल सके। तीन दिन गुजर गए। इमाम के परिवार के छोटे और मासूम बच्चे प्यास से तड़पने लगे। फिर भी हजरत इमाम हुसैन अपने इरादे से नहीं डीगे। यह देख दुश्मन फौजियों ने खेमे पर हमला बोल दिया। इमाम हुसैन ने एक रात की मोहलत मांगी। रात में हुसैन इबादत की और अल्लाह से दुआ मांगी कि मेरे परिवार, मेरे बच्चे शहीद हो जाएं, लेकिन दीन इस्लाम बचा रहे। 10 अक्टूबर 630 ई मुहर्रम की 10 तारीख (यौम ए आशुरह) की सुबह होते ही जंग छिड़ गई। हालांकि इसे जंग कहना उचित नहीं होगा।
एक तरफ लाखों हथियारों से लैस फौज और दूसरी तरफ हुसैन के साथ 72 लोग थे। इनमें 6 महीने से लेकर 13 वर्ष तक के बच्चे भी शामिल थे। दुश्मनों ने 6 माह के प्यास से तड़पते बच्चे अली असगर को तीर मार दी। 13 साल के हजरत कासिम 32 साल के अब्बास और 18 साल के अली अकबर को दुश्मनों ने शहीद कर दिया गया। मुस्लिम इब्न अउबह शहीद हुए। सहाबी जौनतो ने शहादत का जाम पिया। एक-एक कर सभी चाहने वाले शहीद होते गए। हाशिम ने शहादत कबूल की।काशिम जुदा हुए। अली अकबर रुखसत हुए। एक-एक कर सबका शव खेमा में लाया गया। फिर इमाम हुसैन को भी दुश्मनी फौजियों ने शहीद कर डाला। उनके परिवार के खेमा मे आग लगा दी गई। हजरत इमाम हुसैन के नेतृत्व में मुट्ठी भर लोगों ने एक सर्व शक्तिशाली हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ी। यह जंग दुनिया की सबसे बड़ी जंग मानी जाती है। इसमें हुसैनी लश्कर हार कर भी जीत गया और यजीदी फौज मोर्चा जीत कर भी हार कबूल कर लिया।
आज भी ताजा है कर्बला की जंग का गम
संसू, मैरवा (सिवान) : कर्बला इराक की राजधानी बगदाद से करीब एक सौ किलो मीटर उत्तर पूर्व दिशा में स्थित है। यहां 10 अक्टूबर 680 ई.
को एक ऐतिहासिक और धार्मिक युद्ध समाप्त हुई थी। हालांकि यह जंग शुरू होने के कुछ दिनों में ही समाप्त हो गई, लेकिन कर्बला की जंग का गम आज भी उतना ही ता•ा है जितना 1337 वर्ष पहले था। इस जंग में एक तरफ हजरत इमाम हुसैन और उनके परिवार समेत बच्चे एवं बूढ़े 72 साथी थे, वहीं दूसरी तरफ यजीद की 40 हजार सेना थी। इमाम हुसैन के कमांडर अब्बास इब्ने अली थे और यजीदी फौज के कमांडर उमर इब्न सऊद थे। इस जंग में इमाम हुसैन और उनके परिवार के बच्चे बूढ़े जवान समेत सभी 72 साथी शहीद हो गए, लेकिन सत्य के रास्ते से विचलित नहीं हुए। 10 मोहर्रम 61 हिजरी को उनकी शहादत के बाद इमाम हुसैन के बीमार बेटे हजरत इमाम जैनुल आब्दीन बचे, क्योंकि बीमार होने के कारण उन्होंने युद्ध में भाग नहीं लिया था। इस जंग में भले ही देखने को यजीदी फौज की जीत हुई थी, लेकिन वास्तव में इमाम हुसैन और उनके सत्य मार्ग की जीत हुई। आज कोई भी अपने बच्चे का नाम यजीद नहीं रखता बल्कि दुनिया में लाखों हुसैन नाम रखें गए गए हैं।
इस्लामी साल का पहला महीना है मोहर्रम:
मोहर्रम इस्लामी साल हिजरी सन का पहला महीना है। इस्लाम में इस महीने को प्रमुखता हासिल है। इस पवित्र महीने को अल्लाह का महीना बताया गया है। इसमें रोजा रखने की बड़ी फजीलत है। रमजान के रोजे के बाद मोहर्रम के रोजे को अफजल माना गया है। मुहर्रम की 9 तारीख को इबादत का ज्यादा सवाब मिलता है। नबी ए करीम हजरत मोहम्मद ने फरमाया कि नौ मुहर्रम को जिस ने रोजा रखा उसके 2 साल के गुनाह माफ हो जाते हैं। 10 मुहर्रम को यौम ए आशुरा कहा जाता है।उस दिन के रोजा की बड़ी फजीलत है।