Bihar Politics: जनता के पास वोट मांगने नहीं जाते थे 'बिहार केसरी', सत्तू और भूंजा लेकर लोग करते थे चुनाव प्रचार
स्वतंत्रता सेनानी डॉ. श्रीकृष्ण सिंह जिन्हें बिहार केसरी के नाम से जाना जाता था अपने अद्वितीय साहस और चुनाव लड़ने के अनोखे तरीके के लिए प्रसिद्ध थे। वे बिना वोट मांगे भी चुनाव जीतते थे क्योंकि उनका मानना था कि जनता के लिए ईमानदारी से काम करने पर वोट मांगने की आवश्यकता नहीं होती। उन्होंने हमेशा सुचिता की राजनीति का पालन किया और उनके समर्थक भी समर्पित थे।

अरुण साथी, शेखपुरा। स्वतंत्रता सेनानी डॉ. श्रीकृष्ण सिंह को लोग बिहार केसरी के नाम से जानते थे। आजादी की लड़ाई में बेगूसराय के गढ़पुरा में नमक सत्याग्रह के दौरान खौलते कड़ाही से छाती अड़ा देने के अदम्य साहस और निर्भीकता की वजह से उनको यह उपाधि लोगों ने दी।
वहीं, बिहार केसरी चुनाव भी अपने अंदाज में लड़ते है। वे चुनाव में नामांकन के बाद क्षेत्र में वोट मांगने नहीं जाते थे।
एक प्रसंग को याद करते हुए समाजवादी नेता शिवकुमार कहते है कि 1952 के पहले चुनाव में बरबीघा से पहले विधायक श्री कृष्ण मोहन प्यारे सिंह उर्फ लाला बाबू बने। बिहार केसरी मुंगेर के खड़गपुर से विधायक बने। उस समय उनके जीत का अंतर बहुत अधिक नहीं था। खड़गपुर में गुटबाजी बहुत थी।
इसी वजह से लाला बाबू ने कृष्ण बाबू की बरबीघा सीट से 1957 का चुनाव लड़ने का आग्रह किया। इसपर कृष्ण बाबू ने कहा कि ऐसे में आप कहां से चुनाव लड़िएगा? तब लाला बाबू के कहा कि मैं आपके लिए यह सीट छोड़ दूंगा। आपको बरबीघा से चुनाव लड़ना होगा।
इसपर बिहार केसरी राजी हुए। बोले, ठीक है, बरबीघा से चुनाव लडूंगा, पर शर्त यह है कि वोट मांगने नहीं जाऊंगा।इसपर उनको आश्वस्त किया है और वे वोट मांगने नहीं आए। चुनाव में जीत हुई।
इसको लेकर बिहार केसरी के ग्रामीण अविनाश कुमार काजू (सामाजिक कार्यकर्ता) कहते हैं कि बिहार केसरी का मानना था कि पांच साल तक यदि जनता के लिए ईमानदारी से कोई काम करेगा तो फिर उनके लिए वोट मांगने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी ।
इसको लेकर उनके प्रपौत्र अनिल शंकर कहते है कि कृष्ण बाबू हमेशा से सुचिता की राजनीति में भरोसा करते थे। वे नैतिक मूल्यों का पालन करते थे।
अपना सत्तू और भूंजा लेकर चलते थे लोग
वे कहते है कि उनके बाबा स्वर्गीय बंदी शंकर सिंह बताते थे कि श्री बाबू के जमाने में उनके समर्थक अपने घर का खाना खा कर उनके लिए प्रचार करने जाते थे। उस समय बैलगाड़ी और टमटम से प्रचार होता था। लोग अपना सत्तू और भूंजा लेकर चलते थे। कई जगह इसका उल्लेख है।
बिहार केसरी के प्रपौत्र अभय शंकर कहते हैं कि एक बार उनके दादाजी शिव शंकर सिंह का मामला बेतिया में आया, जब वहां के कुछ कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें कांग्रेस की सदस्यता दिला दी।
जब बिहार केसरी को इसकी जानकारी मिली तो वह अपना इस्तीफा देने का तैयारी कर लिए और पटना का मुख्यमंत्री आवास खाली करने लगे ।
इसके बाद शिव शंकर बाबू भागे भागे पहुंचे तो उन्होंने कहा कि जब आप राजनीति करेंगे तो मुझे राजनीति करने की क्या जरूरत है?
इसके बाद शिव शंकर बाबू ने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दिया और जब तक बिहार केसरी राजनीति में रहे, शिव शंकर बाबू और उनके दूसरे पुत्र भी राजनीति में नहीं आए। यह उस जमाने की सुचिता थी।
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