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    सारण में महंगी खाद से परेशान किसानों ने अपनाया 40 साल पुराना तरीका, भेड़ों को खेतों में दी पनाह

    Updated: Fri, 17 Oct 2025 03:16 AM (IST)

    सारण में खाद की बढ़ती कीमतों से परेशान किसानों ने 40 साल पुराने तरीके को अपनाया है। वे अपने खेतों में भेड़ों को चरा रहे हैं, जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ रही है और खाद की जरूरत कम हो रही है। किसानों का मानना है कि यह तरीका खाद की महंगाई से निपटने में मददगार साबित होगा और भेड़ पालकों को भी इससे लाभ होगा।

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    महंगी रासायनिक खाद से परेशान किसानों ने अपनाया देसी उपाय। फोटो जागरण

    संवाद सहयोगी, जलालपुर (सारण)। सारण जिले के किसानों ने महंगी रासायनिक उर्वरकों से हो रही परेशानी का समाधान अपनी पुरानी परंपरा की ओर लौटकर खोज लिया है।

    अब खेतों में फिर से भेड़ों के झुंड बैठाए जा रहे हैं, जैसे चार दशक पहले हुआ करता था। यह तरीका न केवल आर्थिक रूप से किसानों को राहत दे रहा है, बल्कि खेतों की मिट्टी की उर्वरता में भी तेजी से सुधार कर रहा है।

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    देवरिया से आए भेड़पालक राजेश बताते हैं कि हम चार लोग मिलकर भेड़ चराते हैं। बदले में किसान हमें भरपेट खाना देते हैं और रातभर भेड़ें उनके खेतों में बैठती हैं। यह तरीका आज भी वैसे ही प्रभावी है, जैसे 40 साल पहले था।

    कोई रेट बढ़ता नहीं, न कोई शिकायत। ग्रामीण इलाकों में इसे 'भेड़ हिराना' कहा जाता है। भेड़ों के मल और मूत्र से खेतों में वह प्राकृतिक ताकत आ जाती है, जो महंगी कम्पोस्ट खाद भी नहीं दे पाती।

    कृषि विज्ञान केंद्र मांझी के कृषि वैज्ञानिक डॉ. जीतेंद्र चंद्र चंदोला कहते हैं कि भेड़ों के मल-मूत्र में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम जैसे पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। यह केवल जैविक खाद नहीं, बल्कि मिट्टी की संरचना को सुधारने वाला अमृत है।

    किसानों का अनुभव भी यही साबित करता है। सम्होता के किसान राजू सिंह, कमल सिंह, गणेश सिंह, उमानाथ सिंह, शिवनाथ सिंह और संजय सिंह बताते हैं कि पिछले साल उनके खेत में भेड़ें बैठी थीं। आज तक उस खेत में बिना किसी रासायनिक खाद के शानदार फसल हो रही है, और इसका असर कम से कम दो साल तक महसूस किया जा सकता है।

    महंगी रासायनिक खाद के जमाने में यह देसी तरीका किसानों की जेब बचा रहा है और मिट्टी को फिर से जीवंत बना रहा है। भेड़ों की वापसी न केवल प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दे रही है, बल्कि इसे एक हरित क्रांति का देसी संस्करण भी कहा जा सकता है। यह परंपरा आधुनिक युग में किसानों के लिए आर्थिक और पर्यावरणीय लाभ का एक आदर्श उदाहरण बन गई है।