परंपरागत उत्साह से डिजिटल प्रचार तक, बदल गया चुनावी माहौल; मोबाइल से मांगे जा रहे वोट
आजकल चुनाव का माहौल बदल गया है। पहले चुनाव प्रचार पारंपरिक तरीके से होता था, लेकिन अब डिजिटल माध्यमों का उपयोग बढ़ गया है। पार्टियाँ अब मोबाइल के माध्यम से लोगों से वोट मांग रही हैं, जिससे प्रचार का तरीका पूरी तरह बदल गया है।
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परंपरागत उत्साह से डिजिटल प्रचार तक
अमृतेश, छपरा। लोकतंत्र के महापर्व यानी विधानसभा चुनाव का आगाज होते ही राजनीतिक गलियारों में हलचल तेज हो गई है। लेकिन इस बार का चुनाव पहले से काफी अलग है।
आजादी के बाद से लेकर अब तक चुनाव प्रचार के तौर-तरीके, मतदाताओं की भूमिका और कार्यकर्ताओं की भागीदारी में बड़ा बदलाव आया है। परंपरागत तरीकों से हटकर अब प्रचार पूरी तरह तकनीकी और डिजिटल होता जा रहा है।
बदला प्रचार तंत्र, घट गई जनसहभागिता
पहले चुनाव का मतलब होता था उत्सव गली-मोहल्लों में शंख, घंटी और टिन के डिब्बों की आवाज के बीच उम्मीदवारों के समर्थन में जोश से भरे नारों की गूंज। लेकिन अब न वह जोश दिखता है, न वह माहौल इंटरनेट मीडिया, व्हाट्सएप ग्रुप और फोन कॉल ने लोगों के दरवाजे खटखटाने की जगह ले ली है।
वरिष्ठ नागरिक ओम प्रकाश गुप्ता बताते हैं, जनसंघ के जमाने में लोग अपने मोहल्ले में खुद पोस्टर लगाते, झंडा फहराते और शंख बजा कर प्रचार करते थे। आज के प्रचार में आम मतदाता लगभग गायब हो गए हैं। अब चुनाव उत्सव नहीं, बस औपचारिकता रह गया है।
अब नहीं दिखते पर्चा बांटते कार्यकर्ता
एक समय था जब हर पार्टी का कार्यकर्ता हाथ में पर्चा लिए मुहल्ले-मुहल्ले घूमता था। इन पर्चों में प्रत्याशी की योजनाएं और घोषणा पत्र का ब्यौरा होता था। लेकिन अब यह दृश्य लुप्त हो गया है।
वरीय अधिवक्ता भगवान मिश्र कहते हैं पहले पार्टी के लोग हस्तलिखित घोषणा पत्र तैयार कर शहर के गणमान्य लोगों तक पहुंचाते थे। चौक-चौराहे पर बहस होती थी कि किसका विज़न बेहतर है। अब चुनाव से पहले मतदाता खुद जानकारी नहीं लेते, बस इंटरनेट मीडिया पोस्ट देखकर राय बना लेते हैं।
झंडा खुद लगाने का उत्साह हुआ गायब
पहले मतदाता स्वयं अपनी पसंदीदा पार्टी का झंडा घर पर लगाते थे। यह गर्व और भागीदारी का प्रतीक था। लेकिन आज पार्टियां मुफ्त में झंडा बांटती हैं, फिर भी लोग लगाने से परहेज करते हैं।
चुनावी जोश अब डिजिटल हो गया है, पर आत्मीयता खत्म। घर-घर जाकर मिलने की जगह अब वीडियो संदेश और कॉल का दौर चल पड़ा है। प्रत्याशी अपने समर्थकों तक पहुंचने के लिए फेसबुक लाइव, एक्स (ट्विटर) पोस्ट और इंस्टाग्राम रील का सहारा ले रहे हैं।
बैठकें एवं बहसें सिमटी मोबाइल स्क्रीन में
पहले छोटी-छोटी नुक्कड़ सभाओं में स्थानीय मुद्दों पर चर्चा होती थी। मतदाता सीधे प्रत्याशी से सवाल पूछते थे। अब यह संवाद खत्म हो गया है। अधिकांश प्रचार आनलाइन है और बातचीत एक तरफा हो गई है।
चुनाव प्रचार में परिवर्तन का असर यह हुआ है कि अब कार्यकर्ताओं के बीच वह आपसी समर्पण और भाईचारा भी कम होता जा रहा है। पहले सभी दलों के कार्यकर्ता एक ही दरी पर बैठकर मतदान की प्रक्रिया समझते थे। अब सब कुछ तकनीकी हो गया है, लेकिन आत्मीयता गायब है।
डिजिटल प्रचार बढ़ा, मानवीय संपर्क घटा
प्रचार का सबसे बड़ा माध्यम अब इंटरनेट मीडिया और डिजिटल प्लेटफार्म हैं। व्हाट्सएप समूहों से लेकर फेसबुक विज्ञापन तक हर पार्टी अपनी पहुंच बढ़ाने में लगी है।
लेकिन इस दौड़ में मानवीय संबंध पीछे छूट गए हैं।अब मतदाता के दरवाजे पर दस्तक नहीं होती, बल्कि फोन की घंटी बजती है। यह बदलाव आधुनिक जरूर है, पर लोकतंत्र के उस जमीनी जोश को कहीं न कहीं कमजोर भी कर रहा है।
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