जब लोकगीतों की महक से महकते थे खेत, अब मशीनों की घरघराहट में खो रही गांव की पूरी संस्कृति
कभी गांव की सुबहें लोकगीतों और किसानों की चहल-पहल से गुलजार थीं। खेत सिर्फ काम की जगह नहीं, बल्कि उत्सव का केंद्र थे। कटनी पर पूरा गाँव मिलकर काम करता ...और पढ़ें

हार्वेस्टर व मशीनों की रफ्तार ने मिटा दी वह धड़कन
संवाद सूत्र, सूर्यपूरा(रोहतास)। एक समय था जब गांवों की सुबह चिड़ियों की चहचहाहट, पगडंडियों पर किसानों के कदमों की धीमी थाप और खेतों में गूंजते लोकगीतों से महकती थी। खेती सिर्फ मेहनत का काम नहीं, बल्कि पूरे गांव के सामूहिक उत्साह, मेल–मिलाप और परंपराओं का जीवंत उत्सव हुआ करता था। धान की कटनी से लेकर गेहूं की बुवाई तक हर कृषि गतिविधि गांव की संस्कृति में रची-बसी थी।
सिर पर गमछा, कंधे पर हंसुआ और झोले में चूड़ा–गुड़, सत्तू–दही… यही किसानों की दिनभर की सच्ची ऊर्जा होती थी। खेतों की ओर जाते हुए वे अइसन दिनवा ना आवे… जैसे गीत गुनगुनाते और यही गीत काम को और जीवन को रसपूर्ण बना देते थे।
बुजुर्ग बताते हैं कि तब श्रमदान की अद्भुत परंपरा थी। किसी के खेत में कटनी होनी हो तो बिना कहे पूरा गांव उसकी मदद के लिए पहुंच जाता था।
मजदूरी या सौदेबाजी की कोई जरूरत नहीं, गांव के रिश्ते ही सबसे बड़ी पूंजी थे। दोपहर में खेत किनारे बनी चाय, छाछ, रोटियां और आग में पके आलू की सोंधी खुशबू हर थकान मिटा देती थी।
कटनी के मौसम में छोटे-छोटे उत्सव भी होते थे। पहली फसल का दाना प्रकृति को अर्पित करना, घरों में अरवा–पीठा बनाना, बच्चों को नई फसल चखाना… ये परंपराएँ ही ग्रामीण संस्कृति की असली आत्मा थीं। महिलाएं करमा, सोहर और फसल गीतों से माहौल को और जीवंत कर देती थीं।
लेकिन अब तस्वीर तेजी से बदल गई है। मजदूरों की कमी, युवा पीढ़ी का खेतों से दूरी बनाना और मशीनों पर बढ़ती निर्भरता ने गांव की यह सामूहिक धड़कन धीमी कर दी है।
जहां पहले 10–12 लोग मिलकर पूरा दिन खेत में बिताते थे, वहीं अब हार्वेस्टर कुछ ही घंटों में पूरा खेत साफ कर देता है। मशीनों की घरघराहट ने लोकगीतों की मधुर धुनों और मेल–मिलाप की गर्माहट को लगभग दबा दिया है।
बुजुर्गों के शब्दों में 'खेती आज भी है, पर वह खुशबू, वह अपनापन… अब समय की धूल में दबता जा रहा है।
किसानों की जुबानी—कुछ यादें, कुछ दर्द
बलिहार के बुजुर्ग किसान शिवयोगी सिंह कहते हैं, 'पहले खेती मेहनत से ज़्यादा मेल–मिलाप का मौका होती थी। काम में गीत, हंसी और अपनापन जुड़ा होता था। अब मशीनें हैं, पर वो रौनक नहीं रही।'
शिवोबहार के किसान रामेश्वर चौधरी बताते हैं, 'हार्वेस्टर से काम तो तेजी से होता है, पर मन नहीं भरता। कटनी का दिन त्योहार जैसा लगता था, अब बस काम निपटाने की जल्दी रहती है।'
बलिहार के किसान मोहन सिंह कहते हैं, 'पहले हर घर में पीठा बनता था, खेतों में लोकगीत गूंजते थे। अब बच्चे वो गीत भी नहीं जानते।'
बारून की बुजुर्ग मुनी देवी बताती हैं, 'हम महिलाएँ खेत किनारे बैठकर सोहर–करमा गाती थीं। बच्चे खेलते थे। अब मशीनें सब कुछ चुप कर देती हैं। दिल तो तब लगता था, जब लोग साथ होते थे।'
गांव की संस्कृति का यह रूप आज यादों में सिमटता जा रहा है, लेकिन बुजुर्गों की उम्मीद अभी भी जिंदा है—शायद आने वाली पीढ़ी फिर से इन परंपराओं को अपनाए और खेतों में लोकगीतों की वह पुरानी मधुरता फिर लौट आए।

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।