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    कौन हैं टाइपराइटर के हिंदी की-बोर्ड के जनक... जिनका पटना से है गहरा नाता, नेहरू ने की थी तारीफ

    By Edited By: Deepti Mishra
    Updated: Thu, 14 Sep 2023 08:16 AM (IST)

    हिंदी दिवस पर विशेष टाइपराइटर का हिंदी की-बोर्ड पटना साइंस कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के प्रो. कृपानाथ मिश्रा की देन है। इसका पेटेंट भी उनके नाम है। साल 1950-55 के दौरान कार्यालयों में हिंदी टाइपिंग की व्यवस्था नहीं होने पर उन्होंने इस पर काम शुरू किया था। स्वतंत्रता के बाद सरकारी कार्यालयों में हिंदी में कामकाज बढ़ा लेकिन हिंदी में टाइपराइटर नहीं होने से परेशानी हो रही थी।

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    पटना साइंस कालेज के प्रोफेसर की देन है टाइपराइटर की हिंदी की-बोर्ड। तस्‍वीर प्रतीकात्‍मक

    जयशंकर बिहारी, पटना : टाइपराइटर का हिंदी की-बोर्ड पटना साइंस कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के प्रो. कृपानाथ मिश्रा की देन है। इसका पेटेंट भी उनके नाम है। साल 1950-55 के दौरान कार्यालयों में हिंदी टाइपिंग की व्यवस्था नहीं होने पर उन्होंने इस पर काम शुरू किया था।

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    पटना साइंस कॉलेज के पूर्व प्राचार्य प्रो. बीके मिश्रा ने बताया कि स्वतंत्रता के बाद सरकारी कार्यालयों में हिंदी में कामकाज बढ़ा, लेकिन हिंदी में टाइपराइटर नहीं होने से परेशानी हो रही थी।

    अंग्रेजी की तर्ज पर हिंदी में भी टाइपिंग के लिए की-बोर्ड पर प्रो. कृपानंद ने कई सालों तक काम किया। उनके प्रयास से ही सरकारी कार्यालयों में धीरे-धीरे हिंदी टाइपिंग की शुरुआत हुई।

    अंगुलियों के अनुरूप रखे गए थे अक्षर

    पटना विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञान विभाग से सेवानिवृत्त डॉ. अमरेंद्र नारायण ने बताया कि प्रो. कृपानंद के बनाए तीन टाइपराइटर की की-बोर्ड में से एक श्रीकृष्ण विज्ञान केंद्र, पटना को दिया गया था। उन्होंने की-बोर्ड को इस तरह से डिजाइन किया था कि सहज तरीके से किताब और समाचार पत्र के लिए टाइपिंग की जा सके।

    जिन शब्दों का पुस्तक और समाचार पत्रों में ज्यादा उपयोग होता था, उससे संबंधित अक्षर को अंगुलियों की पहुंच के अनुकूल मध्यम में रखा था। कम उपयोग वाले अक्षर ऊपर और नीचे की पंक्ति में रखे गए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी उनके द्वारा तैयार की-बोर्ड की प्रशंसा की थी।

    हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत पर थी समान पकड़

    पटना साइंस कॉलेज के पूर्व प्राचार्य प्रो. राधाकांत प्रसाद ने बताया कि साल 1966 में पटना साइंस कॉलेज में नामांकन होने पर इस टाइपराइटर मशीन के बारे में जानकारी मिली थी। उनसे मिलने का भी अवसर मिला था। वह प्रोफेसर भले अंग्रेजी के थे, लेकिन हिंदी और संस्कृत पर भी उनकी समान पकड़ थी।

    उन्‍होंने आगे बताया कि हिंदी में उपन्यास सहित कई पुस्तकें भी लिखी थी। उनके इस आविष्कार का सबसे अधिक लाभ हिंदी में किताब के सहज प्रकाशन के रूप में देखा गया था। अंग्रेजी में टाइपराइटिंग मशीन तो काफी पहले से मौजूद थी, पर हिंदी में नहीं थी। उनकी मशीन पटना साइंस कॉलेज में भी उपयोग की जाती रही थी।

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