भारतवंशी वैवेल रामकलावन सेशेल्स में हार गए राष्ट्रपति पद का चुनाव, बिहार से है गहरा नाता
सेशेल्स के राष्ट्रपति चुनाव में भारतवंशी वैवेल रामकलावन को हार मिली है। उनका बिहार से गहरा नाता रहा है, जिसके चलते भारत में भी इस चुनाव को लेकर उत्सुकता थी। रामकलावन की हार के बाद सेशेल्स के राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव आने की संभावना है। उनके समर्थकों में निराशा है।

भारतवंशी वैवेल रामकलावन। (फाइल फोटो)
जागरण संवाददाता, पटना। हिंद महासागर के खूबसूरत द्वीपीय देश सेशेल्स में भारतवंशी वैवेल रामकलावन भले ही इस बार राष्ट्रपति पद का चुनाव हार गए हों, लेकिन उन्होंने सेशेल्स की राजनीति में भारतीय मूल के गर्व का एक स्वर्णिम अध्याय अवश्य लिखा है।
26 अक्टूबर, 2020 को जब वे सेशेल्स के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे, तब उन्होंने इतिहास रचते हुए 43 साल बाद विपक्ष की ओर से यह पद हासिल किया था। उनकी जीत न सिर्फ लोकतंत्र की विजय थी, बल्कि प्रवासी भारतीय समुदाय के लिए भी गौरव था।
रामकलावन के पूर्वज ब्रिटिश शासनकाल में मजदूर बनकर बिहार से सेशेल्स गए थे। अभी वह गांव गोपालगंज जिले में है।
करीब 140 पहले गोपालगंज जिले के बरौली प्रखंड की रामपुर पंचायत के परसौनी गांव से निकले कुछ लोग गिरमिटया मजदूर बनकर सेशेल्स पहुंचे थे।
अंग्रेज यहां के लोगों को मजदूरी कराने के लिए ले जाते थे। उन्हें गिरमिटिया मजदूर कहा जाता था। इनमें बिहार के लोग भी बड़ी संख्या में होते थे। उनलोगों ने अपनी मेहनत से वहां अपना साम्राज्य भी स्थापित किया।
रामकलावन के परदादा भी उन्हीं में एक थे। गिरमिटया मजदूर के वंशज वैवेल रामकलावन वर्ष 2020 में सेशेल्स के राष्ट्रपति बने। इससे पहले जब वहां के नेता प्रतिपक्ष थे, तब अपने पूर्वजों के गांव का पता लगाकर परसौनी पहुंचे थे।
अपने पैतृक गांव की दशा देखकर इनका मन व्यथित भी था, तब प्रशासन ने परसौनी तथा रामपुर पंचायत के विकास को गति देने की बात कही थी। वे 10, जनवरी 2018 को अपने पूर्वजों के गांव को ढूंढते हुए परसौनी आए थे। यहां आते ही गांव की माटी को नमन कर माथे पर तिलक लगाया था। वे तब सेशेल्स की नेशनल असेंबली में नेता प्रतिपक्ष थे।
अपने पुरखों के गांव परसौनी में कदम रहते ही उनकी आंखें छलक आईं थी। अपने स्वागत से अभिभूत रामकलावन ने कहा था कि वे यहां का प्यार कभी नहीं भूलेंगे।
उन्होंने अगली बार फिर आने का वादा किया था। यह भी कहा था कि अब आएंगे तो राष्ट्राध्यक्ष बनकर। उन्होंने यह भी कहा था कि वे अपने तीनों बेटों को भी लेकर आएंगे, ताकि वे अपने पुरखों का गांव देख सकें, यहां की मिट्टी को चूम सकें। वे उस समय अपने पुरखों के स्वजन रघुनाथ महतो से मिले थे।
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