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    गायन की अनोखी और आधुनिक शैली है ठुमरी, बिहार के गया से शृंगार रस की इस शैली का खास कनेक्‍शन

    By Vyas ChandraEdited By:
    Updated: Mon, 20 Jun 2022 03:34 PM (IST)

    ठुमरी आज के समय में काफी प्रचलित शैली है। 19वीं सदी की बात करें तो गया इसका मुख्‍य केंद्र रहा है। वर्तमान में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ठुमरी का उद्भव विशेषता और गायन की कला को रेखांकित करता आलेख...

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    शास्‍त्रीय गायकी का प्रमुख केंद्र रहा है बिहार का गया। जागरण आर्काइव

    विनोद अनुपम, पटना। 19वीं सदी से ही गया ठुमरी का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है, जिनके अनेक उद्भट कलाकार इस जमीन पर पैदा हुए हैं। ठुमरी हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की वह आधुनिक शैली है, जो मुख्यत: श्रृंगार गायकी है। ठुमरी के अवतारणा वाद्यों से स्वर-लय व ताल के माध्यम से और गायन में इनके साथ-साथ शब्दों के माध्यम से श्रृंगार की भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है।

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    शृंगार रस है ठुमरी का मुख्‍य विषय 

    ठुमरी गायन का मुख्य विषय श्रृंगार रस, प्रियतम के प्रति नारी-प्रेम रहता है। ध्रुपद गायन में पुरुष के प्रति नारी का प्रेम बहुत ही कम, ख्याल में अधिक और ठुमरी शैली में सबसे अधिक वर्णित है। ठुमरी का उद्भव छोटे ख्याल से संबंद्ध है। ठुमरी ने जब जन्म लिया तो उसमें द्रुत ख्याल को हटाकर छोटी-छोटी मुरकिया व तानें शामिल कर दी गयीं। गीत के शब्दों पर भी ध्यान दिया गया और गीत साधारण त्रिताल के द्रुत ख्याल के समान गाया जाने लगा। अब रहा वातावरण का प्रश्न, जिसमें ठुमरी ने जन्म दिया। 19वीं शताब्दी के आरंभ में जब अवध स्वतंत्र हुआ, तब उस शताब्दी के अंत तक उसमें विलासिता बढ़ गयी, फलत: उन्हें ख्याल शैली से पूर्ण मानसिक संतुष्टि नहीं मिलती थी। उसके अतिरिक्त ख्याल गायकी नृत्य के साथ नहीं गाया जा सकता था। नवाबों को कोई ऐसी गायकी चाहिए थी, जो हल्की हो पर मन को आकर्षित कर सके और नृत्य के साथ गायी जा सके। ठुमरी ऐसी सर्वोत्तम शैली थी, जो उन सब आवश्यकताओं को पूरी करने में समर्थ थी।

    ठुमरी गायन की तीन शैलियांं हैं प्रचलित  

    ठुमरी गायन की तीन शैलियां प्रचलित हैं। प्रथम  लखनऊ, वाराणसी, गया, जिसे पूरब अंग की ठुमरी कहते हैं। द्वितीय-पंजाब अंग की ठुमरी और तृतीय-बम्बई-पूना अंग की ठुमरी है। पूरब अंग में खींच के बोलों और ढाह की ठुमरी गाने का प्रचलन गया में प्रारंभ हुआ। पूरब की ठुमरी का उदभव लखनऊ में हुआ और वह पल्लवित और पुष्पित गया और बनारस में हुई। उस काल में गयावाल पण्डों के यहां संगीत का बड़ा ही उत्तम माहौल था। अधिकांश गयापाल काफी सुखी एवं समृद्ध थे। इन्हें शास्त्रीय संगीत के सुनने एवं गायन वादन का बड़ा शौक था।

    बड़े गायक आरंभ में ठुमरी गाने से करते थे परहेज 

    गया की ठुमरी में बोल बनाव की ढाह त्राकी ठुमरी का बड़ा ही प्रचलन था। उस समय नवाब मोहम्मद खां भी गया में ही रहते थे। जिनसे बेगम अख्तर ने तालीम ली थी, वैसे देखा जाए तो उस जमाने में तवायफों ने ही इस गायकी को पल्लवित किया था। बड़े गायक लोग तो इसे क्षुद्र प्रकृति का गायन मानते थे तथा इसे गाने से परहेज करते थे, लेकिन 20वीं शताब्दी में इसका इतना प्रचलन हुआ मशहूर कलाकार जैसे-फैयाज खां साहब, बड़े गुलाम अली खां, अब्दुल करीम खां, रामचतुर मल्लिक जैसे नामी गिरामी कलाकार भी ठुमरी कहने लगे थे। गयाजी में पंडित कामेश्वर पाठक जी चारों पट में उत्कृष्ट गायक के रूप में ख्यातिनाम रहे हैं। इनकी गायकी में ख्याल, धु्रपद, धमार, ठुमरी तथा तप्पा सभी को सम्मान मिला है। ठुमरी गायकी के भावों एवं विभिन्न रसों का चित्रण ये ठुमरी के बोल बनावों के द्वारा कर पाना इनकी गायकी की विशेषता रही है।

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