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बिहार में AES बीमारी ने भी किया भेद-भाव, बेटे कम बेटियां आईं ज्यादा पसंद, जानिए

वैसे तो बेटे-बेटियों में समाज आज भी फर्क करता है। लेकिन बिहार में चमकी बुखार AES ने भी भेद-भाव करते हुए बेटे की अपेक्षा बेटियों की जान ज्यादा ली है। जानिए इस खबर में....

By Kajal KumariEdited By: Published: Wed, 26 Jun 2019 03:00 PM (IST)Updated: Thu, 27 Jun 2019 09:25 PM (IST)
बिहार में AES बीमारी ने भी किया भेद-भाव, बेटे कम बेटियां आईं ज्यादा पसंद, जानिए
बिहार में AES बीमारी ने भी किया भेद-भाव, बेटे कम बेटियां आईं ज्यादा पसंद, जानिए

मुजफ्फरपुर [प्रेम शंकर मिश्र]। मीनापुर के मूसाचक के जियालाल राम को तीन संतानें हुईं। दो बेटा व एक बेटी। मगर, इस वर्ष बेटी ने परिवार का साथ छोड़ दिया। सात जून को मधु (चार) की एईएस से मौत हो गई। कन्यादान करने की जियालाल की हसरत अधूरी रह गई। इसी प्रखंड के राघोपुर के अली हुसैन अंसारी ने इस बीमारी से दो बेटियां खोई हैं।

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वर्ष 2005 में बड़ी बेटी शहजादी खातून को चमकी बुखार आया। चौक तक जाते-जाते उसने दम तोड़ दिया था। उस वक्त बीमारी का इतना शोर नहीं था। 14 वर्ष बाद दूसरी बेटी (चार) आस्मिन भी इस बीमारी की भेंट चढ़ गई।

जिंदगी की जंग हार गईं बेटियां 

मजदूरी कर जीवनयापन करनेवाले मीनापुर के इन दोनों परिवारों की बेटियों पर ही एईएस का कहर नहीं टूटा है। मनोज साह की दो में से एक बेटी कामिनी (आठ) की भी मौत इस बीमारी से हो गई। दूसरी बेटी अंजली (10) को बचाने के लिए मां अनीता देवी उसे लेकर मायके चली गई। नंदना के अरविंद ठाकुर की बेटी कंचन कुमारी (4.5) व नून छपरा के राजकिशोर महतो की बिटिया गूंजा (पांच) भी जिंदगी की जंग हार गई। 

प्रखंड के इन पांचों गांवों में एईएस से मरनेवाले मासूमों में एक चीज मिलती- जुलती है। इन गांवों ने बेटियां ही खोईं। इस बार एईएस ने बेटियों पर अधिक कहर बरपाया है। एसकेएमसीएच व केजरीवाल अस्पताल में मरनेवाले बच्चों के आंकड़ों को भी देखें तो मरने वाले में 60 से 65 फीसद लड़कियां हैं। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से केजरीवाल अस्पताल में 20 बच्चों की मौत हुई है। इनमें 13 लड़कियां हैं। 

पोषण को लेकर गरीब वर्ग सचेत नहीं 

इस बारे में एसकेएमसीएच के शिशु रोग विभागाध्यक्ष डॉ. गोपाल शंकर सहनी से बात की। उन्होंने कहा, इस वर्ष एईएस से लड़कियां अधिक पीडि़त हैं। इसका कारण यह भी है कि गांव में अब भी लड़कों की तुलना में लोग लड़कियों पर अधिक ध्यान नहीं देते। वैसे तो पोषण को लेकर गरीब वर्ग अधिक सचेत नहीं है। लड़कियों पर तो और ध्यान नहीं दिया जाता। इस कारण से भी लड़कियां अधिक संख्या में इस बीमारी से पीड़ित हो रहीं।

बेटियों को दूध भी नसीब नहीं

गांवों के कुछ लोगों से भी हमने पोषण को लेकर चर्चा की। इसमें यह बात सामने आई कि अधिकतर बच्चों ने मां का दूध छोड़ने के बाद कभी-कभार ही इस पौष्टिक पदार्थ का स्वाद चखा। गरीब परिवार के बच्चे मिठाई किसी भोज या मेला में ही खा पाते। कभी पाव भर दूध मंगा भी लिए तो बउआ (बेटा) को ही मिला। गरीब परिवार की बेटियों को दूध कभी नसीब भी नहीं।

बच्चों को पोषण देने के लिए चलने वाले आंगनबाड़ी केंद्रों की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं। इस कारण बच्चियों को वहां नहीं भेजते। वे मां के साथ ही इधर-उधर काम में हाथ बंटाती हैं। यही कारण है कि इन गरीब परिवार की बेटियों में पोषण का स्तर बेटों की तुलना में कम है। नतीजा बीमारी का प्रकोप भी उन पर ही अधिक है। अगर यही स्थिति रही तो लड़कियां कहेंगी ही, अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो....।

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