'अगले जन्म में भी शारदा सिन्हा बनूं...', बिहार कोकिला की जिंदगी के अनकहे पन्ने; नम हो जाएंगी आपकी आंखें
बिहार कोकिला शारदा सिन्हा अब नहीं रहीं। मैथिली और भोजपुरी गीतों में उनके योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। शारदा सिन्हा ने जो गाया ताउम्र उसे जिया भी इसलिए उनका गाया सच्चा लगता है दिल में उतर जाता है। दैनिक जागरण के संवाददाता कुमार रजत ने भी शारदा सिन्हा के साथ विभिन्न मौकों पर साक्षात्कार किया था। इस लेख में उन्होंने अपने अनुभव को साझा किया है।

कुमार रजत, पटना। 'बिहार कोकिला' शारदा सिन्हा से मैं बहुत बाद में मिला। पहले उनकी आवाज से मिला। याद भी नहीं कि पहली दफा उनकी आवाज कब सुनी थी। शायद छठ का ही महापर्व रहा होगा या कोई शादी-विवाह का अवसर। मगर जब से होश संभाला है, यह आवाज हमेशा से जानी-पहचानी लगी। जैसे अपने घर-आंगन की आवाज हो। जैसे मां की आवाज हो।
शारदा सिन्हा की बात सिन्हा साहब के बिना अधूरी है। सिन्हा साहब यानी उनके पति स्वर्गीय ब्रजकिशोर सिन्हा। वह उन्हें इसी नाम से पुकारती थीं। शारदा को बिहार कोकिला शारदा सिन्हा बनाने में सबसे बड़ा योगदान उनका ही रहा। वह खुद भी हर साक्षात्कार, हर मंच पर यह बात दुहराती रहीं। यह भी संयोग है कि पति के निधन के महज 45 दिन बाद ही उन्होंने भी देह त्याग दिया। जैसे ''हम आपके हैं कौन'' का अपना ही प्रसिद्ध गीत गाकर विदा ले रहीं हों- ''बाबुल जो तुमने सिखाया, जो तुमसे पाया...सजन घर ले चली... सजन घर मैं चली...। यादों के देकर साये, चली घर पराए... तुम्हारी लाडली।''

खुद नहीं किया छठ, कहतीं- गीत ही मेरा अर्घ्य
शारदा सिन्हा ने जो गाया ताउम्र उसे जिया भी इसलिए उनका गाया सच्चा लगता है, दिल में उतर जाता है। यह भी अजीब संयोग हैं कि दुनिया भर में छठ के गीतों का पर्याय शारदा जी ने खुद कभी छठ नहीं किया। वह कहतीं कि ''छठ के गीत ही मेरा अर्घ्य है। मुझे इस बात का संतोष है कि मेरे गीत लोगों को छठ से जोड़ते हैं। मैं इसे ही अपनी जवाबदेही की तरह लेती हूं। मेरी इच्छा है कि जब तक संभव है, मैं छठ गीत गाकर अपनी जिम्मेदारी निभाऊं।'' और उन्होंने इसे निभाया भी। कैंसर की जंग लड़ते हुए दिल्ली एम्स से ही उन्होंने अपना अंतिम छठ गीत रिलीज किया- दुखवा मिटाई छठी मइया...।

अगले जन्म में भी शारदा सिन्हा बनूं:
वर्ष 2016 में पटना में जागरण फिल्म फेस्टिवल के मंच पर उन्होंने अपने जीवन के कई संस्मरण साझा किए थे। उन्होंने कहा था कि जब मायके में पहली बार मंच पर गई तो गांव वालों ने इसे बिरादरी का अपमान बताया मगर पिता और घरवालों ने समर्थन किया। इसी तरह ससुराल में सास भी मंचीय कार्यक्रमों से नाखुश रहतीं मगर पति ने साथ दिया।
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उन्होंने बताया था कि शादी के बाद एक व्यक्ति ने सिन्हा साहब से कहा- कैसे आदमी हो, जो अपनी पत्नी को नचाते-गवाते हो। इसके कुछ दिनों बाद ही जब जै-जै भैरवी असुर भयावनी गीत लोकप्रिय हुआ तो उसी व्यक्ति ने शारदा सिन्हा को देवी कहा। इसी साक्षात्कार में शारदा सिन्हा ने कहा था- अगला जन्म भी शारदा सिन्हा के रूप में लेना चाहती हूं।
छठ गीत सुनकर होती है सिहरन:
शारदा सिन्हा ने अपने साक्षात्कार में बताया कि था छठ गीत सुनकर उन्हें भी सिहरन होती है। उन्होंने बताया था कि सोना सटकोनिया हो दीनानाथ... गीत उनका पसंदीदा छठ गीत है। वह कहतीं कि वह खुद विंध्यवासिनी देवी के गीत रेडियो पर सुनती थीं। उन्होंने अपनी गुरु पन्ना देवी को याद कहते हुए कहा था कि पन्ना जी मुझसे कहती थीं कि शारदा, तुम्हारी आवाज में बहुत कसक है। तुम गाओ तो वाह नहीं, आह निकलनी चाहिए।
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पटना के घाट पर हमहूं अरगिया देहब हे छठि मइयां...
शानदार साड़ी, माथे पर गोल लाल बिंदी, गले में लंबी माला और चेहरे पर मुस्कान। शारदा सिन्हा का ख्याल आते ही यह सारी चीजें याद आती हैं। उन्हें साड़ियों का बहुत शौक था। दिल्ली एम्स में अंतिम समय तक लाल बिंदी उनके माथे की शोभा बढ़ाती रही। अस्पताल में ऑक्सीजन सपोर्ट पर भी उन्होंने रियाज किया। इसका वीडियो भी शेयर किया था। वह खुद बेगम अख्तर और लता मंगेशकर के गीतों को पसंद करतीं।
कोविड के समय जब अस्पताल में रहीं तो लता जी का दर्द भरा गीत अपनी आवाज में रिकॉर्ड भी किया था- यूं हसरतों के दाग... मुहब्बत में धो लिए... यूं दिल से दिल की बात कहीं और रो लिए। शारदा सिन्हा अब नहीं रहीं। वह खनकती आवाज जो सिहरन पैदा करती थी... अब खामोश है मगर उन्होंने गीतों का जो खजाना दिया है... वह अनमोल है। पटना के घाट पर ही उनका अंतिम संस्कार होगा। फिर उनका ही छठ गीत याद आ रहा- पटना के घाट पर हमहूं अरगिया देहब हे छठि मइया... हम न जाइब दूसर घाट... देखब हे छठि मइया।

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