स्मृति शेष: गांधी-लोहिया के विचारों को आजीवन फैलाते रहे सच्चिदानन्द सिन्हा; समाजवाद की एक जीवंत मशाल बुझी
पटना से खबर है कि मुजफ्फरपुर में समाजवादी विचारक सच्चिदानंद सिन्हा का निधन हो गया। सिन्हा जी ने अपना जीवन समाजवाद के मूल्यों को समर्पित किया। वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी शामिल थे और डॉ. लोहिया की पत्रिका 'मैनकाइंड' के संपादक मंडल में रहे। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं जिनके माध्यम से समाज को नई दिशा दी। योगेंद्र यादव ने उनके निधन पर कहा कि भारतीय समाजवादी विचार-परंपरा का एक युग समाप्त हो गया।
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मुजफ्फरपुर में समाजवादी विचारक सच्चिदानंद सिन्हा का निधन
डॉ चंदन शर्मा, पटना। मुजफ्फरपुर में प्रख्यात समाजवादी चिंतक और लेखक सच्चिदानन्द सिन्हा का निधन बुधवार 19 नवंबर को हो गया। यह खबर भारतीय विचारधारा की दुनिया में एक युग के अंत की तरह है।
30 अगस्त, 1928 को मुजफ्फरपुर जिले के साहेबगंज इलाके के परसौनी गांव में जन्मे सिन्हा जी ने अपना पूरा जीवन समाजवाद के मूल्यों को जीने और फैलाने में समर्पित कर दिया।
उनकी कलम ने न केवल राजनीतिक बहसों को नई दिशा दी, बल्कि एक पूरी पीढ़ी को सोचने और संघर्ष करने का रास्ता दिखाया। आज जब हम उनकी स्मृति में झांकते हैं, तो एक सादगीपूर्ण जीवन की कहानी उभरती है, जो विचारों की गहराई से भरी हुई है।
राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश जी, वरिष्ठ पत्रकार गिरीश मिश्र सर से सच्चिदा बाबू के बारे में सुनते आए थे। 2015 में सच्चिदा बाबू 88 वर्ष के रहे होंगे। नीतीश्वर कॉलेज के सभागार में एक सेमिनार में मिलने का सौभाग्य हुआ। उपभोक्तावाद पर उन्होंने जो बोला अद्भुत था।
जहां बाजार की जरूरत नहीं, वहां बाजार खड़ा करना, जहां सड़कें और पुल नहीं चाहिए, वहां भी भविष्य के नाम पर बड़े-बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर देने के पीछे नेताओं और अफसरों का खेल और जनता द्वारा इसको ही विकास मान लेने पर उन्होंने बात की थी। मेरे लिए उनको सुनना सपना सरीखा था।
कार्यक्रम के बाद मैंने उनको चरण स्पर्श किया, उन्होंने गले लगा लिया और मेरी स्पीच की तारीफ की। मैंने कहा, सर मैं तो मंत्रमुग्ध था। उन्होंने एक पुस्तिका दी थी, "उपभोक्ता संस्कृति का संजाल"। अब भी मेरे पास है। आज निधन की खबर पर यादें स्मृति पटल पर आ गई। अपने से खाना बनाना, वंचित वर्ग के साथ रहना, उसकी आवाज बने रहना ही उनकी पहचान थी।
वरिष्ठ पत्रकार कुणाल प्रताप सिंह कहते हैं- "बड़े-बड़े विद्वान आते उनसे बात करने, मिलने उनका जीवन हमेशा सादगीपूर्ण रहा। उनकी लेखनी हमेशा जारी रही।" उनकी कर्मभूमि मुशहरी प्रखंड का मनिका गांव ही रही। चमेला कुटीर में रहते थे। बता दें कि मुशहरी प्रखंड में 1970 जेपी ने 10 माह ठहरकर नक्सलवाद के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी।
सिन्हा जी का जीवन किसी प्रेरणादायक उपन्यास सरीखा था। छात्र जीवन से ही वे समाजवादी विचारधारा की ओर आकृष्ट हुए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में मात्र कक्षा 9 के छात्र के रूप में कूद पड़े और डॉ. राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण तथा करपूरी ठाकुर जैसे दिग्गजों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले।
यह वह दौर था जब स्वतंत्रता संग्राम की लपटें पूरे देश में फैल रही थीं, और सिन्हा जी ने सोशलिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में अपनी पहचान बनाई। उनकी कलम की ताकत का अंदाजा इसी से लगता है कि वे डॉ. लोहिया की प्रसिद्ध पत्रिका 'मैनकाइंड' के संपादक मंडल में शामिल रहे।
बाद के वर्षों में अपने घनिष्ठ मित्र किशन पटनायक की वैचारिक पत्रिका 'सामयिक वार्ता' के संपादकीय सलाहकार के रूप में उन्होंने विचारों की धारा को और मजबूत किया।
सिन्हा जी का जीवन सादगी का प्रतीक था। वे अपने गांव परसौनी में ही रहते थे, जहां प्रकृति की गोद में विचारों की दुनिया रचते। एक रिपोर्ट के अनुसार, वे अपना अधिकांश समय पढ़ने-लिखने में बिताते थे।
हिंसा रहित समाजवाद में उनका विश्वास अटल था। वे मानते थे कि मानवता की सबसे बड़ी उम्मीद इसी विचारधारा में छिपी है। उनकी लेखनी ने पूंजीवाद की सीमाओं को उजागर किया, जाति व्यवस्था की मिथकों को तोड़ा और राष्ट्रीयता के सवालों पर गहन चिंतन किया। दर्जनों पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने समाज को नई दृष्टि दी।
उनकी प्रमुख रचनाओं में 'सोशलिज्म एंड पावर', 'कियोस एंड क्रिएशन', 'कास्ट सिस्टम: मिथ रियलिटी एंड चैलेंज', 'कोएलिशन इन पॉलिटिक्स', 'इमर्जेन्सी इन परस्पेक्टिव', 'इंटरनल कॉलोनी', 'दी बिटर हार्वेस्ट', 'सोशलिज्म: ए मैनिफेस्तो फॉर सरवाइवल', पूंजीवाद का पतझड़', 'वर्तमान विकास की सीमाएं', 'संस्कृति विमर्श', 'मानव सभ्यता और राष्ट्र-राज्य', 'संस्कृति और समाजवाद', 'भारतीय राष्ट्रीयता और साम्प्रदायिकता' व पूंजी का चौथा अध्याय' शामिल हैं। ये किताबें न केवल राजनीतिक विश्लेषण हैं, बल्कि भविष्य की दिशा तय करने वाले दस्तावेज हैं।
उनके विचारों की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है। 97 वर्ष की उम्र में भी वे दो शताब्दियों के बीच सेतु की तरह थे, जो 20वीं सदी के वैचारिक संघर्षों की सीख को 21वीं सदी तक पहुंचाते थे।
योगेंद्र यादव जैसे विचारकों ने उन्हें 'विद्वान, साधु और चिंतक' कहा है। उनके निधन पर यादव ने कहा, "सच्चिदाजी नहीं रहे। भारतीय समाजवादी विचार-परंपरा का एक युग समाप्त हो गया।"
यह श्रद्धांजलि उनके प्रभाव को दर्शाती है। सिन्हा जी की स्मृति और विचार हमें रास्ता दिखाते रहेंगे, खासकर ऐसे समय में जब सामाजिक न्याय और समानता के सवाल फिर से उभर रहे हैं।
सिन्हा जी का जाना एक अपूरणीय क्षति है, लेकिन उनकी विरासत जीवित रहेगी। उनके शब्दों में, समाजवाद न केवल एक राजनीतिक व्यवस्था है, बल्कि मानवीयता का घोषणा-पत्र है। हम उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उनके विचारों को अपनाने का संकल्प लें। अलविदा, सच्चिदा जी! आपकी मशाल हमेशा जलती रहेगी।

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