गांवों से गायब हुआ साग और गीत, शहरों में सिमट गई हरियाली की यादें
कभी गांवों में सहजता से उपलब्ध साग और लोकगीत अब शहरों में सिमट रहे हैं। खेतों में मशीनों के उपयोग, रासायनिक खेती और पलायन के कारण गांवों में साग कम हो ...और पढ़ें

सरसो साग तोड़ते और पकाते लोग
राधा कृष्ण, पटना। एक समय था जब गांवों की सुबह साग की खुशबू और लोकगीतों की मिठास से शुरू होती थी। खेतों की मेड़ों, तालाबों के किनारे और खाली पड़ी जमीनों पर उगे साग को तोड़ती महिलाएं गुनगुनाते हुए गीत गाया करती थीं। हाथों में हंसिया, सिर पर ओढ़नी और होंठों पर लोकधुन—यह दृश्य ग्रामीण जीवन की पहचान हुआ करता था। लेकिन आज यह तस्वीर धीरे-धीरे स्मृतियों में सिमटती जा रही है। गांवों से वह साग और गीत लगभग गायब हो चुके हैं, जबकि हैरानी की बात यह है कि वही साग अब शहरों के बाजारों और फ्लैटों के पास ज्यादा नजर आने लगा है।

ग्रामीण इलाकों में पहले सरसों का साग, बथुआ, चने का साग, नेनुआ की बेल के पत्ते, कद्दू का साग, सहजन के पत्ते और जंगली साग सहज रूप से मिल जाते थे।

महिलाएं इन्हें तोड़ते समय ऋतु गीत, विवाह गीत या देवी गीत गाती थीं। यह केवल साग तोड़ना नहीं था, बल्कि सामूहिक श्रम और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का एक रूप था।

अब गांवों में खेतों की जगह मशीनों ने ले ली है, मेड़ें खत्म हो गई हैं और रासायनिक खेती ने जंगली सागों को उगने का मौका ही नहीं छोड़ा।
खेती में आए बदलाव ने इस परंपरा को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। जहां पहले मिश्रित खेती होती थी, वहीं अब एकल फसल प्रणाली ने जगह ले ली है।
ट्रैक्टर और हार्वेस्टर ने खेतों को इस कदर साफ कर दिया कि साग उगने की गुंजाइश ही नहीं बची। इसके अलावा पशुपालन में कमी और गांवों से शहरों की ओर बढ़ता पलायन भी इसकी बड़ी वजह है।
जो महिलाएं कभी खेतों में साग तोड़ती थीं, वे अब या तो शहरों में घरेलू काम कर रही हैं या गांव में रहकर मोबाइल और टीवी तक सीमित हो गई हैं।
दिलचस्प विरोधाभास यह है कि साग अब गांवों से ज्यादा शहरों में मिल रहा है। शहरी लोग जैविक और देसी खाने की ओर लौट रहे हैं।
शहरों में साग को सेहत का प्रतीक माना जाने लगा है। ऑर्गेनिक बाजारों, हाटों और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर साग महंगे दामों पर बिक रहा है।
फ्लैटों की छतों, बालकनियों और किचन गार्डन में लोग साग उगा रहे हैं। जो चीज कभी गांवों में मुफ्त या बेहद सस्ती थी, वही अब शहरों में स्टेटस सिंबल बन गई है।
इसके साथ ही लोकगीतों की परंपरा भी टूट रही है। साग तोड़ते समय गाए जाने वाले गीत केवल मनोरंजन नहीं थे, बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान, अनुभव और भावनाओं को आगे बढ़ाने का माध्यम थे।
इन गीतों में मौसम, खेती, रिश्ते और जीवन दर्शन समाया होता था। आज गांवों में सामूहिक श्रम के मौके कम हो गए हैं, जिससे गीत भी चुप हो गए हैं।
शहरों में हालांकि लोकसंगीत के कार्यक्रम और रिकॉर्डिंग जरूर होती है, लेकिन वह खेतों की मिट्टी से जुड़ी सहज अनुभूति नहीं दे पाती।
बुजुर्ग महिलाएं आज भी उन दिनों को याद कर भावुक हो जाती हैं। उनका कहना है कि साग केवल भोजन नहीं था, बल्कि आपसी मेलजोल और खुशी का जरिया था।
एक-दूसरे के साथ साग तोड़ना, बांटना और पकाना सामाजिक रिश्तों को मजबूत करता था। अब गांवों में सब्जी बाजार से खरीदी जाती है और वह सामूहिकता टूट चुकी है।
यह बदलाव सिर्फ खानपान का नहीं, बल्कि पूरे ग्रामीण जीवन और संस्कृति का है। साग और गीत का गांवों से गायब होना बताता है कि विकास की दौड़ में हमने कितनी सहज और सुंदर परंपराएं खो दी हैं।
जरूरत है कि गांवों में फिर से मिश्रित खेती, जैविक तरीकों और सामूहिक श्रम को बढ़ावा दिया जाए, ताकि साग के साथ-साथ वे गीत भी लौट सकें, जो कभी गांवों की पहचान हुआ करते थे।

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।