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    महात्‍मा गांधी ने माना था अपना गुरु, बिहार के एक मामूली किसान ने ऐसे बदली आजादी की लड़ाई की दिशा

    By Shubh Narayan PathakEdited By:
    Updated: Sun, 15 May 2022 08:47 AM (IST)

    Mahatma Gandhi and Bihar बिहार के चंपारण के रहने वालेे एक मामूली किसान राज कुमार शुक्‍ल को महात्‍मा गांधी ने अपना गुरु कहकर संबोधित किया था। जानिए चंपारण सत्‍याग्रह और मुरली भरहवा गांव के लोगों के जिद्दीपन की ये दास्‍तान

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    राज कुमार शुक्‍ल के बुलावे पर बिहार आए थे महात्‍मा गांधी। साभार- इंटरनेट मीडिया

    पटना, अनिल तिवारी। चंपारण आंदोलन के बाद भारतीय स्वाधीनता संग्राम का परिदृश्य ही बदल गया था। इसके बाद महात्मा गांधी का प्रभाव बहुत बढ़ गया। इस ओर गांधी जी का ध्यान आकर्षित करने में अहम भूमिका निभाई थी पंडित राजकुमार शुक्ल ने। उनके बारे में गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में भी जिक्र किया है। पंडित राजकुमार शुक्ल की पुण्यतिथि (20 मई) पर उस दौर को याद करना मौजूं है।

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    मुरली भरहवा गांव के लोगों की जिद पर चंपारण आए थे गांधी 

    पश्चिम चंपारण जिले में पंडई नदी के किनारे बसा मुरली भरहवा गांव। गौनाहा प्रखंड अंतर्गत इस गांव के लोगों के खून में जिद्दी होने का स्वभाव है। तभी तो आज से करीब 100 साल पहले यहां के एक सामान्य किसान पंडित राजकुमार शुक्ल ने अंग्रेजों को भगाने की ऐसी जिद ठानी कि मोहनदास करमचंद गांधी को गुजरात से चंपारण आना पड़ा था। चंपारण आंदोलन देश की स्वाधीनता के संघर्ष का मजबूत प्रतीक बन गया।

    गांधी जी ने माना था अपना तीसरा गुरु 

    अंग्रेजों को भारत से खदेड़कर देश स्वतंत्र कराने वाले गांधी जी ने राजकुमार शुक्ल के राष्ट्र व समाजहित की इस जिद की बदौलत उन्हें अपना ‘तीसरा गुरु’ माना। भैरवलाल दास की पुस्तक ‘महात्मा गांधी के तीसरे गुरु पं. राजकुमार शुक्ल’ के आलोक में प्रोफेसर (डा.) रत्नेश्वर मिश्र कहते हैं, ‘1857 के सिपाही विद्रोह के बाद बिहार के सबसे बड़े जननेता पंडित राजकुमार शुक्ल ही हुए। गांधी को चंपारण आमंत्रित करने में सफल होते ही भारत के स्वाधीनता आंदोलन का परिदृश्य ही बदल गया। सिपाही विद्रोह के लगभग 60 वर्ष बाद चंपारण आंदोलन ही देश के सबसे सफल आंदोलन के रूप में इतिहास में वर्णित है।’ 

    दूसरों से लिखवाते थे पत्र

    महात्मा गांधी ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा है-‘राजकुमार शुक्ल सीधे-सादे, लेकिन जिद्दी शख्स थे। उन्होंने अपने इलाके के किसानों की पीड़ा और अंग्रेजों के शोषण की दास्तान बताई। मळ्झसे इसे दूर करने का आग्रह किया।’ पहली मुलाकात में गांधी जी उनसे प्रभावित नहीं हुए थे, इसलिए टाल दिया, मगर पंडित राजकुमार शुक्ल ने हार नहीं मानी। वे कम-पढ़े लिखे होने के कारण उस जमाने के विद्वान लोगों से महात्मा गांधी के लिए पत्र लिखवाते थे।

    पीर मोहम्‍मद मुनीस से लिखवाते थे पत्र 

    बताया जाता है कि वे उस जमाने के पत्रकार पीर मोहम्मद मुनीस से गांधी जी के लिए पत्र लिखवाते थे। पहले मुनीस पत्र लिखकर शुक्ल को सुनाते थे। उसका भाव उन्हें पसंद आता था, तब उसे गांधी जी को भेजते थे। एक पत्र में उन्होंने लिखवाया-‘किस्सा तो सुनते हो औरों का, आज मेरी दास्तां सुनो। जिस प्रकार भगवान श्रीरामचंद्र के चरण स्पर्श से अहिल्या तर गईं, उसी प्रकार श्रीमान के चंपारण में पैर रखते ही हम प्रजा का उद्धार हो जाएगा।’ इस पत्र ने गांधी जी को काफी प्रभावित किया।

    चंपारण का नाम तक नहीं जानते गांधीजी

    आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ के पांचवें भाग के बारहवें अध्याय ‘नील का दाग’ में गांधी जी लिखते हैं, ‘लखनऊ कांग्रेस में जाने से पहले तक मैं चंपारण का नाम तक नहीं जानता था। नील की खेती होती है, इसका तो ख्याल भी नहीं था। यहां के किसानों की पीड़ा से पूरी तरह अंजान था। चंपारण के किसान पं. राजकुमार शुक्ल वहां ले जाने के लिए मेरे पीछे थे।’ महात्मा गांधी ने राजकुमार शुक्ल से एक बार कहा भी कि फिलहाल वे उनका पीछा करना छोड़ दें, लेकिन शुक्ल जी नहीं माने।

    राज कुमार शुक्‍ल ने ऐसे पूरी की जिद  

    लखनऊ में दिसंबर 1916 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में ब्रजकिशोर प्रसाद व राजकुमार शुक्ल ने चंपारण में किसानों की दुर्दशा पर अपनी बात रखी। इसके बाद कांग्रेस ने इसे लेकर प्रस्ताव पारित कर दिया, लेकिन राजकुमार शुक्ल गांधी जी को चंपारण ले चलने की जिद ठाने रहे। इस तरह राजकुमार शुक्ल के अनुरोध पर महात्मा गांधी चंपारण आने को तैयार हुए।

    कोलकाता से पटना पहुंचे थे गांधीजी 

    बापू 10 अप्रैल, 1917 को कोलकाता से पटना और मुजफ्फरपुर पहुंचे। यहां आंदोलन की रणनीति बनाने के बाद मोतिहारी आए। नील की फसल पर लागू तीनकठिया खेती के विरोध में गांधी जी ने चंपारण में सत्याग्रह का पहला सफल प्रयोग किया। जिसके बाद अंग्रेजों की तत्कालीन तीनकठिया व्यवस्था के तहत प्रति बीघे में से तीन कट्ठा जमीन पर नील की खेती करने की किसानों की विवशता को गांधी जी ने समाप्त कराया।

    समाप्त हुआ काला अध्याय

    गांधी स्मारक व संग्रहालय, मोतिहारी के सचिव व पूर्व मंत्री ब्रजकिशोर सिंह कहते हैं, ‘हर बीघे में तीन कट्ठा नील की खेती नहीं करने पर किसानों को दंड स्वरूप कई बार अंग्रेजों की प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता था। गांधी जी चंपारण पहुंचे और यहां के किसानों के आंदोलन को जो धार मिली, उसने देश को स्वाधीनता के मुकाम तक पहुंचा दिया।’ 

    किसानों के बयानों को किया कलमबद्ध 

    चंपारण आने पर गांधी जी को पंडित राजकुमार शुक्ल जैसे कई किसानों का भरपूर सहयोग मिला। पीड़ित किसानों के बयानों को कलमबद्ध किया गया। बिना कांग्रेस का साथ लिए यह लड़ाई अहिंसक तरीके से लड़ी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा। इस तरह यहां 135 सालों से चली आ रही नील की खेती बंद हो गई। बाद में अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। 

    आज भी जारी है संघर्ष

    पंडित राजकुमार शुक्ल को भारत के राजनीतिक इतिहास में वह जगह नहीं मिल सकी, जो मिलनी चाहिए थी। मुंशी सिंह कालेज, मोतिहारी के प्राचार्य प्रोफेसर (डा.) अरुण कुमार कहते हैं, ‘अगली पीढ़ी को गांधी जी के चंपारण सत्याग्रह को समझने के लिए पंडित राजकुमार शुक्ल के बारे में भी अध्ययन करना चाहिए।’ पंडित राजकुमार शुक्ल के गांव मुरली भरहवा में उनकी प्रतिमा स्थापित है। पंडई नदी के कटाव के कारण इस गांव का अस्तित्व ही खतरे में दिखता है, मगर पंडित राजकुमार शुक्ल के उस गांव के ग्रामीण भी कम जिद्दी नहीं हैं। वे वहां से पलायन को तैयार नहीं हैं। वे पंडई और अपनी किस्मत से लगातार संघर्ष कर रहे हैं।

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