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    पटनाः मलिन बस्ती के बच्चों के लिए 'सरस्वती' बन गईं रुक्मिणी

    By Nandlal SharmaEdited By:
    Updated: Mon, 24 Sep 2018 06:00 AM (IST)

    शिक्षा के लिए जिद से हासिल हुआ स्कूल और आंगनबाड़ी, दो दशकों के संघर्ष के बाद अब उच्च शिक्षा के काबिल बने बच्चे।

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    पीछे की दो पीढ़ियां रोटी के जुगाड़ में निरक्षर ही रह गईं। इसे रुक्मिणी ने देखा था और इसका दर्द समझा था। खुद की निरक्षरता भी उसे परेशान करती थी। नतीजा रहा कि देर से ही सही पढ़ाई का महत्व रुक्मिणी को समझ में आया। हालांकि, तब शिक्षा ग्रहण करने की औपचारिक उम्र गुजर चुकी थी और सिर पर परिवार संभालने की जिम्मेदारी भी आ गई थी। रात में सोने के लिए नाले का किनारा और सिर पर पॉलीथिन के सिवा कुछ नहीं था। पूरे दिन बस्ती के मर्द मजदूरी करने चले जाते और महिलाएं हाकिमों के घर में झाड़ू-बर्तन का काम करतीं।

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    हम बात कर रहे हैं हार्डिंग रोड हज भवन के पीछे गुजरने वाले सरपेंटाइन नाले पर बनी झोपड़पट्टी (मलिन बस्ती) की, जहां दो दशक पहले कोई साक्षर नहीं था। पटना के नाला किनारे स्लम में जन्म लेने वाले बच्चों के लिए रुक्मिणी आज सरस्वती बन कर अक्षर ज्ञान की तालिम दिला रही है। 22 वर्षों के संघर्ष में रुक्मिणी के बूते अब स्लम के बच्चे उच्च शिक्षा के लिए कॉलेजों तक पहुंच गए हैं।

    70 के दशक में रोजी-रोजगार के लिए राज्य के ग्रामीण क्षेत्र से पटना आए लोग दिन में मजदूरी, रिक्शा और ठेला चलाते थे और रात सरपेंटाइन नाले के किनारे झोपड़ी में गुजारते थे। 1996 में पटना हाईकोर्ट ने शहर को अतिक्रमण मुक्त करने का आदेश दिया। इस नाले के किनारे बसे स्लम को प्रशासन ने खाली करा दिया।

    रुक्मिणी देवी ने उजड़े लोगों की फरियाद लेकर तत्कालीन जिलाधिकारी से मिलकर गरीबों के लिए आवास और बच्चों के लिए शिक्षा की मांग उठाई। रुक्मिणी की जिद के आगे शासन को झुकना पड़ा और 1997 में हार्डिंग रोड स्लम के बच्चों के लिए प्राथमिक विद्यालय की मंजूरी देनी पड़ी।

    1997 में पेड़ के नीचे पढ़ाई की शुरुआत तो हो गई, लेकिन भवन के साथ आंगनबाड़ी के लिए महिला विकास समिति बनाकर रुक्मिणी ने संघर्ष जारी रखा। संपूर्ण साक्षरता कार्यक्रम के तहत नाला किनारे स्कूल भवन और आंगनबाड़ी केन्द्र के साथ सामुदायिक भवन का निर्माण हुआ।

    घर से बच्चों को स्कूल पहुंचाया
    आरंभ में बच्चे पढ़ना नहीं चाहते। रुक्मिणी को देखते ही बच्चे भाग जाते थे। बच्चे लकड़ी और कबाड़ी चुनने भाग जाते थे, तो कुछ मिट्टी लाने। घर-घर में जाकर मां-बाप को समझाकर बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करना शुरू किया। आरंभ में 20 बच्चे स्कूल पहुंचने लगे। वर्तमान में 120 बच्चे पढ़ रहे हैं। आरंभ में पढ़ाई शुरू करने वाला बच्चा इन दिनों कॉलेज में पार्ट थ्री तक पहुंच गया है। कुछ मैट्रिक पास कर रोजी-रोजगार में लग गए।

    पढ़ाई से बसी जिंदगी
    रामानंद झोपड़ी में रहकर और पेड़ के नीचे पढ़ाई कर बीए पार्ट थर्ड में पहुंच गया। डॉ. शांति ओझा यहां के बच्चों को किताब-कॉपी का प्रबंध कराने लगीं। पहले मिड डे मिल नहीं था। 20 सूत्री कार्यक्रम से बच्चों के लिए विलायती दूध आता था। धीरे-धीरे पढ़ाई का माहौल बना तो बच्चे बढ़ते गए। अभिभावकों को शिक्षा का महत्व समझ में आया तो जिंदगी बेहतर हो रही है। अब स्कूल में बच्चों की तुलना में कमरे कम हैं। शिक्षक के तीन पद स्वीकृत हुए, लेकिन दो ही आते हैं। अब आगे की लड़ाई स्कूल भवन के विस्तार के लिए जारी है।