पिछले मतदाता पुनरीक्षण के बाद केंद्र और बिहार में बदल गई थी सरकार, राजद-कांग्रेस के प्रदर्शन पर डालें नजर
मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण बिहार में चुनाव परिणाम और विपक्ष की संभावना को प्रभावित करने के उद्देश्य से हो रहा। वर्ष 2003 में एसआइआर हुआ था। उस समय भी केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार थी। उसके अगले वर्ष हुए चुनाव में वह सत्ताच्युत हो गई।

विकाश चन्द्र पाण्डेय, पटना। महागठबंधन को आशंका है कि मतदाता-सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) बिहार में चुनाव परिणाम और विपक्ष की संभावना को प्रभावित करने के उद्देश्य से हो रहा। पिछले कुछ चुनाव परिणामों से यह आशंका निर्मूल सिद्ध हो रही।
इस आकलन के आधार में 2003 के बाद के चुनाव परिणाम हैं। इससे पहले वर्ष 2003 में एसआइआर हुआ था। उस समय भी केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार थी। उसके अगले वर्ष हुए चुनाव में वह सत्ताच्युत हो गई। तब बिहार में राजद को लोकसभा की 22 सीटों पर सफलता मिली थी।
2003 में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार थी। बिहार में राबड़ी देवी मुख्यमंत्री हुआ करती थीं। कांग्रेस और राजद की मित्रता तब भी थी। तब एसआइआर पर आज के जैसे हाय-तौबा नहीं मची थी।
हालांकि, तब भी एसआइआर की प्रक्रिया माह भर में ही पूरी हुई थी। गरीबी, अप्रवासन और बाढ़ तब भी बिहार के लिए कटु सत्य थे। एसआइआर के अगले वर्ष ही लोकसभा का चुनाव हुआ। परिणाम राजग के लिए सुखद नहीं रहा। वाजपेयी को सत्ता गंवानी पड़ी।
केंद्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार बनी थी, जिसमें लालू प्रसाद को रेल मंत्रालय का दायित्व मिला था। बाद में चारा घोटाले में सजायाफ्ता होने के कारण उनकी सदस्यता समाप्त हो गई थी। उसी के साथ उनकी संसदीय राजनीति का पटाक्षेप हो गया।
2004 में हुए लोकसभा चुनाव के वर्ष भीतर ही बिहार में विधानसभा का चुनाव भी हुआ। वह वर्ष 2005 था। तब दो बार चुनाव की नौबत बनी। फरवरी में हुए चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला। विधायकों की संख्या के आधार पर लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान सत्ता की चाबी लेकर इतराते रह गए।
बिहार के इतिहास में वह पहला उदाहरण है, जब विजयी रहे प्रत्याशी विधायक की शपथ तक नहीं ले पाए। अक्टूबर-नवंबर में दोबारा चुनाव की नौबत बनी। परिणाम ने राजद को कुछ और अधिक निराश किया। कांग्रेस की स्थिति अक्टूबर में भी कमोबेश फरवरी के बराबर ही रही। उसकी दुर्गति तो एक दशक पहले से ही शुरू हो चुकी थी।
इन चुनावों के परिणामों का गहनता से विश्लेषण करें तो पता चलता है कि विभिन्न दलों के साथ उनके आधार वोटर लगभग यथावत हैं और समग्रता के आधार पर मतदान प्रतिशत में कोई बहुत अंतर नहीं आया। जनता के सापेक्ष मुद्दों और वादों के साथ सरकार से मोहभंग चुनाव परिणाम को प्रभावित करने के मुख्य कारक रहे। यह सीएसडीएस-लोकनीति का आकलन है।
लोकसभा चुनाव
- चुनावी वर्ष : दल : लड़ी गई सीटें : जीती सीटें : मिले वोट : वोट प्रतिशत
- 2004 : राजद : 26 : 22 ( 16) : 8994821 : 30.67 ( 2.28)
- 2004 : कांग्रेस : 04 : 03 ( 1) : 1315935 : 4.49 ( 4.32)
- 1999 : राजद : 36 : 07 (-10) : 10085302 : 28.29 ( 1.71)
- 1999 : कांग्रेस : 16 : 04 (-1) : 3142603 : 8.81 ( 1.54)
विधानसभा चुनाव
- चुनावी वर्ष : दल : लड़ी गई सीटें : जीती सीटें : मिले वोट : वोट प्रतिशत
- 2000 : राजद : 293 : 124 : 10500361 : 28.34
- 2000 : कांग्रेस : 324 : 23 : 4096467 : 11.06
- 2005 (फरवरी) : राजद : 210 : 75 (-40) : 6140223 : 25.07 (-3.27)
- 2005 (फरवरी) : कांग्रेस : 84 : 10 : 1223835 : 05.00 (-6.06)
- 2005 (अक्टूबर) : राजद : 175 : 54 (-21) : 000 : 23.45
- 2005 (अक्टूबर) : कांग्रेस : 51 : 09 (-1) : 0000 : 6.09
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