आरा से आजमगढ़ तक क्रांतियुद्ध के नायक थे कुंवर सिंह, 80 वर्ष की उम्र में मौत से तीन दिन पहले अंग्रेजों को था हराया
बाबू कुंवर सिंह ने 80 वर्ष की उम्र में भी अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। मरने से तीन दिन पहले तक इस वयोवृद्ध सेनानी ने युद्ध किया और अपने जगदीशपुर स्टेट को अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त कराया।
पटना, अरविंद शर्मा। आजादी की पहली लड़ाई के सर्वश्रेष्ठ योद्धा थे बाबू कुंवर सिंह, जिन्होंने 80 वर्ष की उम्र में भी अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। कभी घुटने नहीं टेके। 1857 की लड़ाई में दानापुर के बहादुर सैनिकों और भोजपुर के वीर जवानों के साथ बिहार के पटना, सोनपुर, सासाराम, आरा से लेकर यूपी के आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर तक देश के दुश्मनों से लड़ते और पराजित करते रहे। आजमगढ़ में उन्होंने अंग्रेजों को दो-दो बार हराया। 81 दिनों तक आजमगढ़ को आजाद रखा। मरने से तीन दिन पहले तक इस वयोवृद्ध सेनानी ने युद्ध किया और अपने जगदीशपुर स्टेट को अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त कराया। अंतिम युद्ध 1858 में 23 अप्रैल को किया। बहादुरी से लड़ते हुए अंग्रेजों को परास्त किया।
इतिहासकार पंडित सुंदरलाल ने लिखा है कि कुंवर सिंह क्रांतिकारियों के प्रमुख नेता और 1857 के सबसे बहादुर सेनानियों में थे। 80 साल के वृद्ध कुंवर सिंह अपने सफेद घोड़े पर सवार युद्धस्थल के बीच बिजली की तरह इधर-उधर लपकते दिखाई देते थे। अंग्रेज इतिहासकार होम्स ने लिखा है कि शुक्र है कि क्रांति के समय बाबू कुंवर सिंह 80 वर्ष के वृद्ध थे। अगर नौजवान होते तो 90 वर्ष पहले ही भारत में ब्रिटिश सत्ता का अंत हो जाता। उस बूढ़े योद्धा की मृत्यु भी विजेता की तरह हुई। होम्स ने कुंवर सिंह की आखिरी लड़ाई का वर्णन एक चश्मदीद अंग्रेज अधिकारी के हवाले से किया है। उस अधिकारी ने लिखा कि मैैंने जो देखा, उसे बताते हुए भी शर्म आ रही है। हमारी सेना मैदान छोड़कर जंगल की तरफ भागना शुरू कर दिया। कुंवर सिंह की सेना पीछे से हमें मारती-काटती रही। जनरल लीग्रैैंड को गोली लगी। वह मेरे सामने ही तड़प रहा था। करारी हार देखकर हमारे सिख सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। हाथी छीन लिए। कहार डोलियां रखकर भाग गए। हमारे सैनिक प्यास से परेशान थे। कई ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। चारों तरफ रोने और चीखने के अलावा और कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।
छत्रपति शिवाजी की तरह बनाई युद्ध नीति
वीर सावरकर ने इनकी युद्धनीति को छत्रपति शिवाजी की तरह बताया है। लिखा है कि शिवाजी के बाद कुंवर सिंह भारत के दूसरे बड़े योद्धा थे, जिन्होंने अंग्रेजों से मुकाबले के लिए गुरिल्ला युद्ध नीति का इस्तेमाल किया। इसके सहारे उन्होंने अंग्रेजों को बार-बार हराया। जब जन्म लिया था तब भी इनकी मातृभूमि स्वतंत्र थी और 26 अप्रैल 1858 को निधन हुआ तब भी स्वतंत्र थी। अंग्रेजी इतिहासकारों ने भी इनकी वीरता की सराहना की है।
जगदीशपुर में थी बड़ी जमींदारी
कुंवर सिंह की जगदीशपुर में बड़ी जमींदारी थी। उन्होंने आजादी की लड़ाई को आजीवन जारी रखा। किंतु पहले गुप्त अभियान चला रहे थे। प्रत्यक्ष तौर पर तब आए जब 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत हुई। सबसे पहले कुंवर सिंह ने अपनी ताकत जुटाई और फिर परतंत्रता के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। जुलाई 1857 में पटना में क्रांतिकारियों के नेता पीर अली को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था। दानापुर (पटना) के सैनिकों ने प्रतिक्रिया में 27 जुलाई 1957 को अंग्रेजी सरकार से विद्रोह कर दिया और सोन नदी पारकर आरा पहुंच गए। सैनिकों ने कुंवर सिंह के नेतृत्व में जेल तोड़कर कैदियों को आजाद कराया। इसे आरा विजय के नाम से जाना जाता है। उसके बाद जगह-जगह घमासान शुरू हो गया।
हारे पर हौसला नहीं टूटा
दो अगस्त 1857 को कुंवर सिंह ने बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान युद्ध में अंग्रेजी सेना को चुनौती दी। हार का सामना करना पड़ा मगर हौसला नहीं टूटा। कुछ दिन बाद ही वह अपने साथियों के साथ रीवा की ओर निकल गए। वहां उनकी मुलाकात नाना फडऩवीस से हुई। फिर तात्या टोपे की मदद के लिए बांदा और कालपी की प्रस्थान किया। यह वह समय था, जब कुछ अपने ही लोगों की दगाबाजी के चलते उन्हें कामयाबी नहीं मिली। तात्या की हार के बाद वह लखनऊ आ गए। इसी दौरान बिहार लौटते समय बलिया के मुड़कटवा मैदान में फिर एक बार अंग्रेजों से मुकाबला हुआ। यहां एक सौ से ज्यादा अंग्रेजी सैनिकों को मार गिराया। जब जगदीशपुर आने के लिए वह सैनिकों के साथ गंगा पार कर रहे थे तो जनरल डगलस की गोली उनके हाथ में लगी। उन्होंने अपनी तलवार से स्वयं अपना हाथ काटकर गंगा नदी मेें प्रवाहित कर दिया।
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