Hal-Bail Culture: ट्रैक्टरों के शोर में भी जिंदा है मिट्टी की आवाज... कोसी अंचल में आज भी चलता है हल-बैल का संस्कार
कोसी अंचल में आज भी हल-बैल की संस्कृति जीवित है, जो आधुनिक खेती के दौर में भी गांवों की पहचान बनी हुई है। किसान हल-बैल से की गई खेती को मिट्टी के लिए ...और पढ़ें

कोसी अंचल में आज भी चलता है हल-बैल
डिजिटल डेस्क, पटना। कोसी अंचल की पहचान केवल उसकी नदियों, उपजाऊ मिट्टी और मेहनतकश किसानों से ही नहीं, बल्कि उस कृषि परंपरा से भी है जिसने पीढ़ियों तक गांवों की जीवनशैली को दिशा दी। आधुनिक खेती के दौर में जहां ट्रैक्टर, थ्रेशर और आधुनिक यंत्र खेतों में आम हो चुके हैं, वहीं आज भी कोसी के कई गांवों में हल-बैल की संस्कृति जीवित है। यह केवल खेती का एक तरीका नहीं, बल्कि ग्रामीण समाज की आत्मा, संस्कार और प्रकृति से जुड़ाव का प्रतीक है।
सुपौल, सहरसा, मधेपुरा और आसपास के इलाकों में आज भी सुबह के समय खेतों में बैलों की जोड़ी के साथ किसान हल चलाते नजर आ जाते हैं।
मिट्टी को चीरता लकड़ी का हल, बैलों की घंटियों की मधुर आवाज और किसान की लयबद्ध चाल, ये दृश्य आधुनिक युग में भी गांवों की पहचान बने हुए हैं। कई किसान मानते हैं कि हल-बैल से की गई खेती मिट्टी को जीवंत बनाए रखती है और फसलों की गुणवत्ता बेहतर होती है।
वरिष्ठ किसान बताते हैं कि पहले पूरे गांव में खेती का यही तरीका था। हल-बैल केवल कृषि का साधन नहीं, बल्कि परिवार का सदस्य माने जाते थे।
उनके लिए अलग चारा, देखभाल और त्योहारों पर विशेष पूजा की जाती थी। मकर संक्रांति, छठ या अन्य पर्वों पर बैलों को सजाया जाता, उनके सींग रंगे जाते और हल की भी विधिवत पूजा होती थी। यह परंपरा आज भी कई गांवों में निभाई जा रही है।
हालांकि समय के साथ बदलाव भी आए हैं। ट्रैक्टरों ने काम को तेज और बड़े खेतों के लिए आसान बना दिया है। कम समय में अधिक क्षेत्र की जुताई संभव हो गई है।
इसी कारण हल-बैल की संख्या में कमी आई है। युवा पीढ़ी आधुनिक मशीनों की ओर अधिक आकर्षित है। फिर भी, छोटे और सीमांत किसान आज भी हल-बैल को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं।
किसानों का कहना है कि ट्रैक्टर से जुताई महंगी पड़ती है। डीजल का खर्च, मशीन का किराया और मरम्मत, इन सबका बोझ छोटे किसानों के लिए आसान नहीं।
इसके विपरीत, हल-बैल से खेती अपेक्षाकृत सस्ती है। साथ ही यह पर्यावरण के अनुकूल भी है। न धुआं, न शोर और न ही मिट्टी की ऊपरी परत को नुकसान।
कई किसान मानते हैं कि ट्रैक्टर से बार-बार जुताई करने से जमीन की उर्वरता घटती है, जबकि हल-बैल से मिट्टी लंबे समय तक उपजाऊ बनी रहती है।
पशुपालन से जुड़ा यह तरीका ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी सहारा देता है। बैल केवल खेतों में ही नहीं, बल्कि गांव के अन्य कामों, जैसे गाड़ी खींचना, अनाज ढोना, में भी उपयोगी होते हैं। इससे किसानों को अतिरिक्त खर्च नहीं करना पड़ता। साथ ही गोबर खाद के रूप में खेतों के लिए अमृत समान है, जो रासायनिक खाद पर निर्भरता को कम करता है।
कृषि विशेषज्ञ भी मानते हैं कि पारंपरिक और आधुनिक तरीकों का संतुलन ही भविष्य की राह है। पूरी तरह मशीनों पर निर्भरता से लागत बढ़ती है और पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ता है।
वहीं, केवल पारंपरिक तरीकों से बड़े पैमाने पर उत्पादन संभव नहीं। ऐसे में हल-बैल आधारित खेती को जैविक और प्राकृतिक खेती से जोड़कर एक नया मॉडल तैयार किया जा सकता है।
आज भी कोसी के कई गांवों में ऐसे किसान हैं, जो आधुनिकता के बीच अपनी जड़ों को नहीं भूले हैं। उनके लिए हल-बैल केवल एक औजार नहीं, बल्कि विरासत हैं।
वे मानते हैं कि जब तक खेतों में बैलों की जोड़ी चलती रहेगी, तब तक गांवों की आत्मा जीवित रहेगी।
आधुनिक खेती के इस तेज दौर में हल-बैल की संस्कृति का बने रहना यह बताता है कि विकास का मतलब परंपरा को छोड़ना नहीं, बल्कि उसे साथ लेकर आगे बढ़ना है।
कोसी अंचल की यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों के लिए यह संदेश देती है कि मिट्टी, पशु और किसान का रिश्ता केवल लाभ-हानि का नहीं, बल्कि जीवन और संस्कृति का है।

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