Illegal Sand Mining: बिहार में आर्थिक अपराध इकाई बेहद सक्रिय, बालू के खेल में लगे अधिकारियों के यहां पड़ रहे छापे
Illegal Sand Mining ठोस सबूतों के आधार पर शिकंजा ऐसा कसा जाए जो अदालत में भी ढीला न पड़े और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुखर माहौल निर्मित हो। इस बार जिस तरह से सबूत मिल रहे हैं उससे पता चलता है कि इनका अदालत में बचना मुश्किल ही होगा।
पटना, आलोक मिश्र। Illegal Sand Mining आजकल बिहार में आर्थिक अपराध इकाई बेहद सक्रिय है। बालू के खेल में लगे अधिकारियों के यहां दनादन छापे पड़ रहे हैं। इसी कड़ी में गुरुवार को पांचवें अधिकारी थे भोजपुर जिले के निलंबित एसपी राकेश कुमार दुबे, जिनके चार ठिकानों पर छापा मारा गया। पता चला कि एसपी साहब अपने वेतन से बमुश्किल ही कुछ खर्च करते थे, लेकिन संपत्ति में बढ़ोतरी निरंतर हो रही थी। आय से ढाई करोड़ रुपये से अधिक की उनकी परिसंपत्तियां मिलने का दावा आर्थिक अपराध इकाई ने किया है। इससे पहले भी जिन चार अधिकारियों के यहां छापे पड़े, उनके यहां भी मामला कुछ ऐसा ही रहा।
बिहार में बालू के खेल में लिप्त 41 अधिकारियों पर पहले ही निलंबन की गाज गिर चुकी है और उसके बाद अब एक-एक कर उनके ठिकानों पर छापे मारे जा रहे हैं। राकेश दुबे से पहले एक एसडीओ, दो एसडीपीओ और एक एमवीआइ के यहां छापेमारी की गई और सभी जगह करोड़ों की आय से अधिक संपत्ति मिली। इन छापों से इस खेल में फंसे अन्य लोगों के दिलों की धड़कनें तेज हैं, क्योंकि उनकी बारी कभी भी आ सकती है। ताबड़तोड़ कार्रवाई देख व्यवस्था के प्रति भरोसा जगने लगा है, लेकिन सवाल भी खड़े हो रहे हैं कि वाकई ये कानून के फंदे में फंस सकेंगे या बच निकलेंगे, क्योंकि नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार पिछले साल आर्थिक अपराध के लगभग आठ हजार मामले आए। उसमें महज 70 मामलों में ही चार्जशीट दाखिल हो पाई है और सजा केवल एक को मिली, जबकि सात निर्दोष साबित हुए।
पटना स्थित आइपीएस राकेश दुबे का आवास, जहां गुरुवार को आर्थिक अपराध इकाई ने छापा मारा। जागरण आर्काइव
भ्रष्टाचार पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जीरो टालरेंस वाली घोषणा कार्रवाई में नजर तो आती है, मगर उसे अंतिम मुकाम तक पहुंचाने वाली एजेंसियां बीच में ही कहीं ठहर जाती हैं। परिणाम यह होता है कि एक समय में भ्रष्टाचार के आरोपों से चर्चित हुआ चेहरा बाद के दिनों में बेदाग बन कर फिर सक्रिय हो जाता है। इसकी कई वजह बताई जाती है। मूल वजह ये बताई जा रही है कि सरकारी एजेंसियां अदालतों में इतने मजबूत तथ्य नहीं पेश कर पाती हैं कि जिनके आधार पर कथित भ्रष्टाचारी को सजा मिल सके।
कार्रवाई के बाबत और जानना है तो जरा निगरानी विभाग के आंकड़ों पर भी गौर करें। वर्ष 2003 से 2020 तक निगरानी में कुल 4377 मामले दर्ज किए गए। इन मामलों को निगरानी विभाग ने अपने पोर्टल पर भी दर्शाया है। इसके लिए कई कालम बनाए गए हैं। अंतिम कालम में हरेक केस की अद्यतन स्थिति के बारे में जानकारी दी गई है। अधिसंख्य केस के बारे में अंतिम स्थिति में यह दर्ज है कि अभियोजन के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं। इस कारण से वर्ष 2018 तक कुल 70 सरकारी सेवकों को ही ट्रायल कोर्ट से सजा हो सकी। यह सजा एक से लेकर 10 साल तक की थी। कुछ अभियुक्तों को अर्थ दंड की भी सजा दी गई। लेकिन निगरानी की जानकारी में यह ब्योरा नहीं है कि ट्रायल कोर्ट के ऊपर की अदालत में कितने लोगों की सजा बहाल रह पाई। इसका एक कारण यह है कि हरेक मामले की समय पर जांच भी नहीं हो पाती। क्योंकि भ्रष्टाचार रोकने के लिए बनाई गई सरकारी एजेंसियों के पास सक्षम मानव बल नहीं है। प्रतिनियुक्ति या अवकाशप्राप्त कर्मियों से ही किसी तरह से काम चलाया जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि कार्रवाई होती नहीं है। विशेष निगरानी इकाई की सबसे बड़ी उपलब्धि एक रिटायर डीजी नारायण मिश्र के खिलाफ सख्त कार्रवाई है। वर्ष 2007 में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार निरोध की धाराओं में मामला दर्ज किया गया। न्यायालय के आदेश से उनकी एक करोड़ 34 लाख रुपये की संपत्ति जब्त की गई। उनके मकान में सरकारी स्कूल खोल दिया गया। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अवकाश प्राप्त अधिकारी शिवशंकर वर्मा की संपत्ति का भी अधिग्रहण किया गया था। लेकिन ये सख्त नतीजे इतने कम हैं कि भ्रष्टाचारियों के दिल में खौफ पैदा नहीं कर पाते हैं। विशेष निगरानी इकाइयों के केस भी अदालतों में कम ही टिक पाते हैं।
[स्थानीय संपादक, बिहार]