Move to Jagran APP

आजाद हिंद के नायक: आजादी के लिए हर बलिदान को तैयार थे सुभाष चंद्र बोस, जापान की गलती से फेल हुई रणनीति

Azadi Ka Amrit Mahotsav नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अगुवाई में बनी आजाद हिंद फौज का एक ही मिशन था देश के दुश्मनों के साथ युद्ध और स्वाधीनता प्राप्ति। उनके विरोधियों ने कहा कि यदि सुभाष जीत जाते तो भारत इंग्लैंड की गुलामी से निकलकर जापान का गुलाम बन जाता।

By Shubh Narayan PathakEdited By: Published: Sun, 17 Oct 2021 12:01 PM (IST)Updated: Sun, 17 Oct 2021 12:01 PM (IST)
आजाद हिंद के नायक: आजादी के लिए हर बलिदान को तैयार थे सुभाष चंद्र बोस, जापान की गलती से फेल हुई रणनीति
आजादी के महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस। फाइल फोटो

पटना, भैरव लाल दास। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अगुवाई में बनी आजाद हिंद फौज का एक ही मिशन था, देश के दुश्मनों के साथ युद्ध और स्वाधीनता प्राप्ति। 21 अक्टूबर,1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाकर यह साबित कर दिया था कि देश अब गुलामी की जंजीरों से बाहर निकलने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के बाद अंग्रेज सरकार ने बिना किसी की सलाह लिए भारत को युद्ध में शामिल कर दिया। सुभाष चंद्र बोस और फारवर्ड ब्लाक द्वारा विरोध करने पर 5 जुलाई, 1940 को सुभाष को पहले गिरफ्तार किया गया, फिर घर में ही नजरबंद कर दिया गया।

loksabha election banner

40 दिनों तक घर से नहीं निकल सके सुभाष

अंग्रेजों द्वारा नजरबंद किए जाने के बाद 40 दिनों तक सुभाष घर से बाहर नहीं निकले। 16 जनवरी, 1941 की रात में ट्रेन से पेशावर और वहां से सीमा पार कर अफगानिस्तान पहुंचे। इटली के दूतावास से संपर्क कर आइलैंडो मजोड़ा के नाम से पासपोर्ट बनवाया। बुखारा, समरकंद, रूस होते हुए 3 अप्रैल, 1941 को सुभाष बर्लिन पहुंचे, जहां सौफिंस ट्रैसी में उनका विश्राम स्थल बना। जर्मन सरकार ने सुभाष को सहयोग करने के लिए स्पेशल इंडिया डिविजन बना दी और बर्लिन रेडियो से ब्रिटिश विरोधी प्रचार की अनुमति मिल गई। भारतीय युद्धबंदियों को लेकर सुभाष ने फ्री इंडिया लीजन का गठन किया। ब्रिटेन की सेना की ओर से उत्तरी अफ्रीका और मिस्त्र में लड़ रहे भारतीयों को जब आजाद हिंद फौज के गठन की सूचना मिली तो वे युद्धबंदी बनकर जर्मनी पहुंचकर सेना में योगदान देने लगे।

हिटलर ने भी बढ़ाई नेताजी की शान

29 मई, 1942 को सुभाष और हिटलर की मुलाकात हुई। उपहारस्वरूप उन्होंने हिटलर को बुद्ध की मूर्ति दी। सुभाष के सम्मान में हिटलर ने कहा कि मैं तो केवल 8 करोड़ जनता का नेता हूं, सुभाष चंद्र बोस के सिर पर भारत की 38 करोड़ जनता का भार है। सुभाष को ‘डिप्टी फ्यूहरर आफ इंडिपेंडेट इंडिया’ या ‘आजाद हिंद का नेता’ का खिताब दिया गया। इसी के बाद उनका नाम नेताजी पड़ा। अक्टूबर, 1941 को आजाद हिंद रेडियो की स्थापना हुई। रेडियो के संवाद लेखन और वार्ता लेखन का काम नेताजी स्वयं करते। सुबह-शाम 45 मिनट प्रसारण से कार्यक्रम आरंभ हुआ, जो बढ़ते-बढ़ते लगभग तीन घंटे तक पहुंच गया। 2 नवंबर, 1941  को आजाद हिंद संघ का उद्घाटन हुआ।

सहमति से सौंपी फौज की कमान

कैप्टन मोहन सिंह से हुए विवाद के बाद दिसंबर, 1942 से लेकर फरवरी, 1943 तक फौज को संगठित करने के लिए रासबिहारी बोस ने बहुत परिश्रम किया। एम.जेड. निजामी, शाह नवाज खान, पी.के. सहगल, हबीबुर्रहमान, ए.सी. चटर्जी आदि सैनिक नेताओं ने निर्णय लिया कि फौज की जिम्मेदारी सुभाष को देने के लिए उन्हें आमंत्रित किया जाए। जर्मनी में नेताजी की सैनिक गतिविधियों के बारे में जापान के राजदूत ओशिमा हीरोशी अपने देश को लगातार अवगत करा रहे थे। जापान सरकार ने भी निर्णय लिया कि आजाद हिंद फौज की बागडोर सुभाषचंद्र बोस को सौंप दी जाए।

निष्ठा में समर्पित हजारों भारतीय

11 मई, 1943 को नेताजी टोक्यो पहुंचे। जापान के प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो ने उनका स्वागत किया और जापानी संसद में घोषणा की कि भारत को पूर्ण स्वाधीन बनाने में जापान मदद देगा। 3 जुलाई, 1943 को रास बिहारी बोस के साथ सिंगापुर पहुंचने पर आजाद हिंद फौज के अफसरों व इंडिपेंडेस लीग के सदस्यों ने नेताजी का उत्साहपूर्ण स्वागत किया। रेडियो संबोधन में नेताजी ने दक्षिण-पूर्व एशिया में रह रहे भारतीयों से अनुरोध किया कि स्वतंत्रता संग्राम में भारत की सहायता करें। 4 जुलाई को जापानी सैनिक अधिकारी इवाइची फुजीवारा ने आजाद हिंद फौज की संपूर्ण कमान नेताजी को सौंप दी।

पांच जुलाई सुभाष बने आजाद हिंद फौज के सेनापति

5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल में दक्षिण-पूर्वी एशिया के प्रवासी भारतीयों के सम्मेलन में सुभाष ने इंडिया इंडिपेंडेंस लीग का अध्यक्ष एवं आजाद हिंद फौज के सेनापति का पदभार ग्रहण किया और सुप्रीम कमांडर के रूप में सलामी ग्रहण की। 50,000 भारतीयों ने दूसरे दिन सार्वजनिक प्रदर्शन कर उनके प्रति निष्ठा व्यक्त की। दान में मिले साढ़े आठ करोड़ रुपए से आजाद हिंद बैंक की स्थापना हुई। प्रवासी सरकार की ओर से ‘हिंद’ और ‘आजाद हिंद’ नामक दो समाचार पत्रों का प्रकाशन शुरू हो गया।

नारों से गूंज उठा आसमान

23 अक्टूबर, 1943 को सिंगापुर के म्युनिसिपल भवन के सामने हिंदुस्तानी नागरिकों और सैनिकों का विराट समारोह हुआ। मंत्रियों की समिति ने प्रस्ताव पास कर दिया कि अस्थायी आजाद हिंद सरकार ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध लड़ाई की घोषणा करती है। आकाश नारों से फटने लगा। 15 मिनट तक 50 हजार व्यक्तियों का समुदाय अस्त-व्यस्त रहा। ‘दिल्ली चलो, दिल्ली चलो’ के नारे लगाए जाने लगे। 28 अक्टूबर, 1943 को पत्रकार सम्मेलन में सुभाष ने कहा- ‘आजाद हिंद की अस्थायी सरकार बनाने के साथ मेरे राजनीतिक जीवन का दूसरा स्वप्न पूरा हो गया।’ पहला स्वप्न था-क्रांतिकारी सेना का निर्माण। एक स्वप्न और पूरा करना है-युद्ध और स्वाधीनता प्राप्ति।

मार्च 1944 में हुआ इंफाल पर आक्रमण

जापान सरकार ने आजाद हिंद फौज को अंडमान एवं निकोबार द्वीप का शासन हस्तांतरित कर दिया, जिसे शहीद एवं स्वराज्य द्वीप नाम दिया गया। 31 दिसंबर को सुभाष अंडमान पहुंचे और प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। ‘यू-गो’ सांकेतिक शब्द के तहत मणिपुर पर आक्रमण की तैयारी हुई। जनवरी, 1944 में नेताजी अपना सैनिक मुख्यालय सिंगापुर से रंगून ले आए। फरवरी में अराकान मोर्चे पर पहला युद्ध हुआ। चटगांव जाने वाली सड़क पर हुई झड़पों में मिली सफलता से फौजी उत्साहित हुए। मार्च में इंफाल पर आक्रमण हुआ, जिसमें फौज की कमान एम.जेड. क्यानी के हाथों में थी। इसमें जापानी सेना के तीन डिविजनों ने भी भाग लिया था। इस युद्ध में भारतीयों ने ब्रिटिश सेना के दांत खट्टे कर दिए। 21 मार्च को नेताजी ने प्रेस वार्ता में कहा कि 18 मार्च, 1944 को फौज मातृभूमि की सेवा करने के लिए भारत में कदम रख चुकी है।

देश को समर्पित नेता

नेताजी को राष्ट्रीयता का पाठ गुरु वेनी माधव दास ने पढ़ाया था। वे प्रतिदिन गीता पढ़कर जीवन दर्शन की प्रखरता ग्रहण करते। रुद्राक्ष की माला धारण करते थे। विजयादशमी के दिन स्वामी भाष्वारानंद को अपने घर आमंत्रित किया था। सिंगापुर में सारे कार्य निपटाने के बाद गहन रात्रि में सुभाष रामकृष्ण मिशन जाते थे। यूनिफार्म छोड़कर पटवस्त्र धारण करते और घंटों ध्यान करते। आजाद हिंद फौज की स्थापना के समय ईश्वर को साक्षी मानकर शपथ ली कि भारत की 38 करोड़ जनता को स्वतंत्र कराने के लिए अपने खून की अंतिम बूंद भी लगा दूंगा। एक बार जापान के प्रधानमंत्री तोजो ने कहा कि स्वतंत्रता के बाद भारत के राज्य प्रमुख सुभाष बाबू होंगे। नेताजी ने इसका प्रतिवाद किया और कहा कि स्वतंत्रता मिलने के बाद यह भारत की जनता को तय करना है। जो काम भारत में गांधी, नेहरू और मौलाना आजाद कर रहे हैं, दक्षिण-पूर्व एशिया में वह कर रहे हैं।

कर्म के माध्यम से दी नई दिशा

सुभाष की कार्यशैली में एकाग्रता और उच्च पराकाष्ठा थी। वे कर्म के माध्यम से राष्ट्र एवं समाज को नई दिशा देना चाहते थे। उनके विरोधियों ने यहां तक कहा है कि यदि सुभाष जीत जाते तो भारत, इंग्लैंड की गुलामी से निकलकर जापान का गुलाम बन जाता। इसमें कोई सच्चाई नहीं है। उन्होंने कभी भी जापान से आर्थिक सहायता नहीं ली सिर्फ सामरिक मदद ली। आजाद हिंद फौज कभी भी जापान के चंगुल में नहीं रही। उस समय जापान का विरोध इंग्लैंड से था और नेताजी भी इंग्लैंड से भारत को आजाद कराना चाहते थे, इसलिए दोनों साथ थे।

जापानी सेना का कई मौकों पर किया विरोध

अगस्त, 1944 में जापान ने चुंपोंग पर हमला करना चाहा, नेताजी ने इसका विरोध किया और हमला नहीं हुआ। मार्च, 1945 में बर्मा की सेना द्वारा जापानी सेना से विद्रोह करने की स्थिति में भी जापान को बर्मा की सेना पर हमला नहीं करने दिया। इतना ही नहीं, जापानी सेना चाहती थी कि कोलकाता पर बम गिराकर अंग्रेजी सेना पर विजय प्राप्त करें, लेकिन नेताजी ने ऐसा नहीं होने दिया। वस्तुत: जापान द्वारा निर्णय लेने में देरी किए जाने के कारण ही  नेताजी की रणनीति विफल हुई। नेताजी की दूरदृष्टि थी कि जापान से अलग होकर रूस बहुत दिनों तक नहीं रह सकता है।

आई वह दर्दनाक खबर

हवाई सेवा में कमजोरी के कारण जापान युद्ध में पिछड़ गया। 6 जुलाई, 1944 को नेताजी ने रंगून रेडियो से महात्मा गांधी से अपील कर फौज के विजय की शुभकामना मांगी। 6 अगस्त को आपरेशन लिट्ल ब्वाय और 9 अगस्त, 1945 को आपरेशन फैट ब्वाय के तहत अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए। 14 अगस्त, 1945 को जापान के आत्मसमर्पण के बाद नेताजी के सामने भी आत्मसमर्पण के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं था। हबीबुर्रहमान, एस.ए.अय्यर, आविद हसन, नेवनाथ आदि के सलाह के अनुसार नेताजी टोक्यो के लिए चल दिए। रास्ते में बैंकाक व सैगान में रुके। यहां नेताजी एवं हबीबुर्रहमान को विशाल जापानी बमवर्षक विमान में स्थानांतरित कर दिया गया। टूरेन में इन्होंने रात बिताई। 18 अगस्त को ताइवान के लिए रवाना हुए ताकि दाइरने के रास्ते टोक्यो पहुंच सकें।

23 अगस्‍त को आई थी मनहूस खबर

23 अगस्त, 1945 को टोक्यो रेडियो द्वारा विमान के ताइहोकू हवाई अड्डे पर ध्वस्त होने और नेताजी के वीरगति पाने का समाचार प्रसारित किया गया। मगर देश में किसी ने आज तक इस बात पर विश्वास नहीं किया। नेताजी के अलग-अलग नामों से भारत में ही कहीं अज्ञातवास के किस्से बहुत मशहूर हैं। सच कुछ भी हो, सुभाष अपने देश से असीम प्रेम करते थे। देश को स्वतंत्र कराने के लिए वह किसी से भी मदद लेने के लिए तैयार थे, सर्वोच्च बलिदान को तत्पर थे। यही सोच अन्य राजनेताओं से उन्हें अलग करता है, अमर करता है।

(लेखक बिहार विधान परिषद में परियोजना अधिकारी हैं)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.