10 बार विधायक बनने का एक ही राज.. मेरा दरवाजा हर समय सबके लिए खुला रहा: हरिनारायण सिंह
हरिनारायण सिंह ने 10 बार विधायक बनने का राज बताया। उन्होंने कहा कि उनकी सफलता का कारण हमेशा लोगों के लिए उपलब्ध रहना था। उनका दरवाजा हमेशा जनता के लिए ...और पढ़ें

जागरण संवाददाता, पटना। हारे को हरि नाम-मगर बिहार के नालंदा जिले में जीते को हरिनारायण कहा जाता है। क्यों न कहा जाए...84 की उम्र के हरिनारायण सिंह, अबतक 12 बार विधानसभा का चुनाव लड़े। उसमें 10 बार जीत हुई। इसमें एक उप चुनाव भी है। 1977 में पहली बार जनता पार्टी उम्मीदवार की हैसियत से चंडी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़े। पहला चुनाव और पहली जीत भी मिली। लेकिन, तीन साल से कम समय में 1980 में विधानसभा भंग हो गई।
चुनाव हुआ तो उसमें उनकी हार हुई। ढाई साल के भीतर ही चुनाव में जीते कांग्रेसी दिग्गज रामराज सिंह का निधन हो गया। उप चुनाव हुआ तो हरिनारायण सिंह की जीत हो गई। असल में उनकी लगातार जीत में उन लोगों के लिए संदेश छिपा हुआ है, जो एक बार चुनाव लड़कर उम्र भर के लिए भूतपूर्व हो जाते हैं।
1977 में इमरजेंसी के कारण पूरे देश में कांग्रेस विरोधी लहर चल रही थी। बिहार में इस लहर का लाभ जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने वालों को मिला। ऐसे लोग भी चुनाव जीत गए, जो टिकट की घोषणा से पहले संबंधित विधानसभा से परिचित भी नहीं थे। ऐसे लोगों के नाम बिहार विधानसभा के इतिहास में इस रूप में दर्ज हैं कि उन्होंने दूसरी बार सदस्य के रूप में विधानसभा का मुंह नहीं देखा।
हरिनारायण सिंह भी पहली बार उसी लहर में जीते थे। लेकिन, उन्हें अपने विधानसभा क्षेत्र का पता था। क्योंकि चुनाव लड़ने के 10 साल पहले यानी 1967 से ही इस क्षेत्र के हर हिस्से में वे घूम रहे थे। 1967 से 1974 के जेपी आंदोलन तक तत्कालीन जनसंघ के कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने क्षेत्र में व्यापक जन संपर्क किया था। उन दिनों जरूरी चीजों पर कोटा लागू था। चीनी, सीमेंट और केरोसिन का कारोबार नियंत्रण में था।
इन चीजों की जब कभी जरूरत पड़ती, लोग हरिनारायण सिंह से संपर्क करते थे। वह अधिकारियों से लड़-भिड़कर सामान उपलब्ध करा देते थे। बेशक, आज के दौर में बिहार के लिए सीमेंट, चीनी, केरोसिन परमिट तो दूर, सड़क-बिजली की उपलब्धता भी मुद्दा नहीं रह गया है, लेकिन बेलगाम चुनावी खर्च और बेरोजगारी उन्हें चिंता में डालती है। खर्च की तय सीमा के दायरे में रहकर ही 10 बार चुनाव जीतने वाले हरनौत के विधायक हरिनारायण सिंह से दैनिक जागरण के बिहार राज्य ब्यूरो प्रमुख अरुण अशेष ने लंबी बातचीत की। प्रस्तुत हैं बातचीत के मुख्य अंश:
लंबी यात्रा में अब थकान महसूस हो रही है क्या?
- थकान कभी महसूस नहीं हुई। 1965 में स्नातक किया। उसी समय समाजसेवा का संकल्प लिया। राजनीति और जनसेवा का पहला पाठ जनसंघ से जुड़कर सीखा। उस समय बिहार जनसंघ के बड़े नेता थे-कैलाशपति मिश्र। उनका मार्गदर्शन और नेतृत्व मिला। लंबी लड़ाई चली। जेपी आंदोलन के समय डीआइआर और मीसा में अलग-अलग जेलों में करीब ढाई साल तक बंद रहा।
वर्ष 1977 के लोकसभा चुनाव के समय बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव मिला। मैंने मना कर दिया। लेकिन, विधानसभा चुनाव में चंडी से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव मैं ठुकरा नहीं पाया। लड़ा और जीता भी। उस समय जनसंघ और कई समाजवादी दलों का जनता पार्टी में विलय हो गया था।
मैं जनसंघ में रहते हुए जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा। 1980 में जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा, लेकिन वर्ष 1985 में मैं लोकदल में चला गया। जनसंघ और समाजवादी-इन्हीं दो धाराओं के बीच हमारी राजनीति रही है। आज जदयू में हूं। भाजपा के रूप में आज भी जनसंघ का सान्निध्य है।
क्या आप 11वीं जीत की तैयारी कर रहे हैं?
- नहीं। मैंने तो इस बार भी चुनाव लड़ने के प्रति अनिच्छा जाहिर की थी। मेरे इकलौते पुत्र अनिल कुमार नालंदा जिला जदयू के उपाध्यक्ष हैं। वही चुनाव की तैयारी कर रहे थे। मैं बीमार पड़ा था। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हाल-चाल जानने के लिए आए थे। मैंने उनसे आग्रह किया कि इस बार मुझे चुनाव से मुक्त कर दें। वे राजी भी हो गए थे। अचानक निर्देश आया कि इस बार भी आप ही चुनाव लड़ेंगे।
10 बार जीत का रिकार्ड बनाकर कैसा लग रहा है?
सच कहिए तो चुनाव लड़कर रिकार्ड बनाने का मेरा कोई इरादा नहीं था। पता नहीं, कैसे रिकार्ड बन गया। मुझे बताया गया कि देश की दूसरी विधानसभाओं में भी 10 बार चुनाव जीतने वालों की संख्या न के बराबर है। बेशक रिकार्ड अच्छा लगता है। लेकिन, अब और चुनाव लड़ने की इच्छा नहीं रह गई है।
लंबी यात्रा के अनुभव के रूप में बताएं कि पहली से लेकर 10वीं जीत तक में राजनीति में कितना बदलाव आया है?
- जमीन-आसमान का फर्क आ गया है। पहले समाजसेवा से जुड़े लोग राजनीति में आते थे। जनता की ओर से उन्हें चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया जाता था। लोग वोट देते थे। चुनावी खर्च के लिए चंदा देते थे। संपन्न लोग भी चुनाव लड़ते थे। लेकिन, वह भी समाज सेवा और राजनीतिक आंदोलन से आते थे। यह बदल गया है।
अब धनी और बड़ी पूंजीवाले लोग चुनाव लड़ रहे हैं। सरकारी सेवा से निवृत्त अधिकारी चुनाव लड़ रहे हैं। उन्हें रातोंरात उम्मीदवारी मिल जाती है। पार्टी और धन के प्रभाव में वोट मिल जाता है। जीत भी हो जाती है। यह स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती है।
राजनीति में धनबल और बाहुबल के बढ़ते प्रभाव को कैसे रोका जाएगा?
- हमें लग रहा है कि इसे अंतत: जनता ही रोकेगी। कभी बड़ा जनआंदोलन होगा। उसी से राजनीति में ऐसे तत्वों के प्रवेश पर रोक लग पाएगी। राजनीतिक दलों की ओर से तो इस तरह के प्रयास की कोई संभावना फिलहाल नजर नहीं आ रही है। यह जन आंदोलन ही है, जिसके माध्यम से मेरे जैसे लोग राजनीति में आए और अभी तक डटे हुए हैं।
आपका चुनावी खर्च कितना रहा?
- वह बताते हैं कि उन्हें कभी निर्धारित सीमा से अधिक धन नहीं खर्च करना पड़ा। 1977 के पहले चुनाव में केवल 18 हजार खर्च हुए थे और वह रुपये भी चंदा में आ गए थे। यानी घर से कोई खर्च नहीं। 2025 के विधानसभा चुनाव में भी उनका खर्च चुनाव आयोग की ओर से निर्धारित 40 लाख रुपये के आसपास ही रहा।
आप शुरू में लालू प्रसाद के साथ थे, फिर नीतीश कुमार के साथ कैसे आए?
- वर्ष 1977 में तो हम सब साथ ही थे। हम, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार एक ही आंदोलन से राजनीति में आए। हां, 1995 से कुछ पहले हमलोगों की दिशा बदल गई। नीतीश कुमार ने समता पार्टी के नाम से नई पार्टी बनाई। मैं लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले जनता दल में ही रह गया। फिर सन् 2000 में मैं नीतीश कुमार की समता पार्टी में शामिल हुआ। उस साल मैं समता पार्टी का उम्मीदवार बना। मेरी जीत हुई। तब से मैं नीतीश के साथ हूं।
लालू प्रसाद की मंत्रिपरिषद में मैं कृषि राज्य मंत्री था। नीतीश कुमार ने अपनी कैबिनेट में शिक्षा मंत्री बनाया। समता पार्टी में आने का आग्रह नीतीश कुमार ने ही किया था। वैसे, मेरे नालंदा जिले की राजनीतिक स्थितियां नीतीश कुमार के अनुकूल रहीं हैं। वह आज भी हैं। जहां तक निजी संबंधों का प्रश्न है, नीतीश कुमार से हमेशा ही अच्छे संबंध रहे हैं। वर्ष 1977 में नीतीश कुमार चुनाव हार गए थे।
मैं जीता था। उन दिनों, जब नीतीश कुमार किसी सदन के सदस्य नहीं थे, हमारे नाम से आवंटित विधायक आवास का उपयोग वह अपनी राजनीतिक गतिविधियों के लिए करते थे। यह सुखद संयोग है कि नीतीश कुमार जिस विधानसभा क्षेत्र हरनौत से पहली बार विधायक चुने गए थे, मैं उसी क्षेत्र का अभी प्रतिनिधित्व कर रहा हूं। 10 में से चार बार मैं चंडी और छह बार हरनौत से जीता हूं।
आजकल जन प्रतिनिधियों से यह आम शिकायत रही है कि चुनाव जीतने के बाद वे क्षेत्र नहीं जाते हैं, लोगों से मिलते-जुलते भी नहीं हैं। आप कैसे मैनेज करते हैं?
- मेरी लंबी जीत में निरंतर संपर्क का बड़ा योगदान है। लंबे समय तक यह मेरी दिनचर्या का यह हिस्सा रहा है, विधानसभा का सत्र समाप्त होने के बाद मैं सीधे अपने क्षेत्र में चला जाता हूं। मंत्री रहने के दौरान यह दिनचर्या बाधित होती थी। अब उम्र के कारण बहुत अधिक क्षेत्र भ्रमण नहीं हो पाता है।
1977 से आजतक मेरे सरकारी आवास का दरवाजा किसी के लिए कभी बंद नहीं हुआ। क्षेत्र के लोग और दूसरे लोग भी जब चाहें, आकर मिल सकते हैं। मैं प्रतिदिन आज भी आवासीय कार्यालय में बैठता हूं। लोगों की शिकायत-समस्या सुनता हूं। तुरंत संबंधित सरकारी अधिकारी को फोन करता हूं। मैं सौभाग्यशाली हूं कि अधिकारी भी मेरे आग्रह का सम्मान करते हैं।
आपने पक्ष-विपक्ष दोनों ओर बैठकर बिहार को बदलते हुए देखा है। पार्टी से उठकर बात करें तो अब बिहार सरकार को किस क्षेत्र में सबसे ज्यादा काम करना चाहिए?
- एक राहत जन समस्याओं को लेकर है। पहले क्षेत्र के लोग सड़क, बिजली, स्कूल, राशन, इलाज जैसी समस्याओं के निदान के लिए मिलते थे। नीतीश कुमार के शासन में इन क्षेत्रों में इस स्तर का विकास हुआ है कि लोग अब इनसे जुड़ी शिकायतों को लेकर मेरे पास नहीं आते हैं।
हम जब 1967-77 के दिनों में गांवों में जाते थे, तो पगडंडियों से यात्रा तय होती है। आज तो आप किसी गांव में मोटर से जा सकते हैं। नीतीश कुमार के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी मानते हैं कि बिहार में बेजोड़ विकास हुआ है। इससे दूसरे राज्यों में बिहार की इज्जत बढ़ी है। जिस तरह से उद्योगों के विकास की योजना बन रही है, हम उम्मीद करते हैं कि आने वाले दिनों में सामान्य रोजी-रोजगार के लिए बिहार के लोगों को बाहर नहीं जाना पड़ेगा।
84 की उम्र में भी आप स्वस्थ हैं, कुछ दिनचर्या के बारे में बताएं?
- खेती-बारी हमारा पारिवारिक पेशा है। हम किसान परिवार के हैं, इसलिए शुरू से खेती में रुचि रही है। आप जानते हैं कि खेती में मेहनत है। किसान को सुबह उठना पड़ता है। खेतों-फसलों को देखने के लिए लंबा भ्रमण करना पड़ता है। यह श्रमसाध्य है। बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद सरकारी नौकरी के बारे में कभी विचार नहीं आया।
खेती-बारी और समाजसेवा-इन्हीं दो विषयों का मैंने चयन किया। ये दोनों में मेहनत की जरूरत पड़ती है। उन दिनों यातायात की आज जैसी सुविधा नहीं थी। एक गांव से दूसरे गांव पैदल ही जाना पड़ता था।
इसका अच्छा प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ा। भ्रमण की आदत बन गई। यह आज भी है। प्रयास रहता है कि सुबह पांच बजे बिस्तर छोड़ दूं। भ्रमण करूं। जाड़े के दिनों में इधर बिस्तर छोड़ने में देरी हो रही है। फिर भी भ्रमण हो ही जाता है। शारीरिक श्रम बहुत सारी बीमारियों का इलाज भी है।
जैसे विधानसभा पर नियंत्रण है, क्या वैसा ही खानपान पर भी है। भोजन में क्या पसंद है?
- विशुद्ध शाकाहारी हूं। चावल, दाल, सब्जी, रोटी, दूध-दही...यही सब पसंद है। अपने परिवार के लिए दूध हमेशा उपलब्ध रहे, इसके लिए गाय पालता हूं। गांव के अलावा पटना के सरकारी आवास पर भी हमेशा गायें रहती हैं। रात में दूध का सेवन अनिवार्य रूप से करता हूं। हां, मैं तनाव नहीं पालता हूं। स्थितियां अनुकूल हों या प्रतिकूल-वह हमें तनाव नहीं देती हैं।
राजनीति के क्षेत्र में आपकी कोई आकांक्षा, जो अभी तक पूरी नहीं हुई है?
- कुछ नहीं। ईश्वर ने मुझे सब कुछ दे दिया। एक पुत्र और दो पुत्रियां हैं। दो पौत्र हैं। सभी प्रसन्न हैं। पुत्रियों का परिवार भी हंसी-खुशी जी
'सच कहिए तो चुनाव लड़कर रिकार्ड बनाने का मेरा कोई इरादा नहीं था। पता नहीं, कैसे रिकार्ड बन गया। मुझे बताया गया कि देश की दूसरी विधानसभाओं में भी 10 बार चुनाव जीतने वालों की संख्या न के बराबर है। बेशक रिकार्ड अच्छा लगता है, लेकिन, अब और चुनाव लड़ने की इच्छा नहीं रह गई है।'

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।