हरि प्रसाद चौरसिया बोले, प्रेम के साथ सृजन का प्रतीक है बांसुरी ...जानिए और क्या कहा
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी की धुन ने शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाने अहम भूमिका निभाई है। उनकी बांसुरी से फूटने वाली धुन टूटे मन को जोडऩा जानती है। उनका मानना है की बांसुरी प्रेम के साथ सृजन का प्रतीक भी है।
पटना [रविंद्र भारती]। पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी की धुन ने शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाने अहम भूमिका निभाई है। उनकी बांसुरी से फूटने वाली धुन टूटे मन को जोडऩा जानती है। उनका मानना है की बांसुरी प्रेम के साथ सृजन का प्रतीक भी है। ये सबसे प्राचीन वाद्य यंत्र में से एक है। उन्होंने चांदनी, डर, लम्हे, सिलसिला, फासले, विजय और साहिबान जैसी फिल्मों में भी अपना संगीत दिया है।
राजधानी में 'पंचतत्व' कार्यक्रम में शिरकत करने आये हरि प्रसाद ने दैनिक जागरण से खास बातचीत की। उन्होंने कहा कि मैं काफी सालों से यहां के सांस्कृतिक कार्यक्रम में शिरकत करता आया हूं। यहां के लोग अच्छे श्रोता ही नहीं, बल्कि अच्छे इंसान भी हैं।
कभी सोचा नहीं था कि इतने सम्मान मिलेंगे
अपने मिले सम्मानों पर वे कहते है कभी मैंने ये सोचा नहीं था की इतने सम्मान मुझे प्राप्त होंगे। ये देश के लोगों का प्रेम ही है जो आज मैं यहां तक पहुंच पाया हूं। पं. हरिप्रसाद चौरसिया को कला क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा साल 2000 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। भारतीय बांसुरी वादन कला को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने में पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की भूमिका प्रशंसनीय है।
इन्हें फ्रांसीसी सरकार का 'नाइट आफ दि आर्डर आफ आर्ट्स एंड लेटर्स' पुरस्कार और ब्रिटेन के शाही परिवार की तरफ से भी उन्हें सम्मान मिला है। इसके अलावा भी उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले हैं।
वो सुनहरा दौर था
चौरसिया ने संतूर वादक पंडित शिवशंकर शर्मा के साथ मिलकर 'शिव-हरि' नाम से कुछ हिन्दी फिल्मों में मधुर संगीत भी दिया। इस जोड़ी की फिल्में हैं- चांदनी, डर, लम्हे, सिलसिला, फासले, विजय और साहिबान। इसके अलावा पंडित जी ने बालीवुड के प्रसिद्ध संगीतकारों सचिन देव बर्मन और राहुल देव बर्मन की भी कुछ फिल्मों में बांसुरी वादन किया।
पंडित चौरसिया कहते हैं कि वो एक सुनहरा दौर था। सचिन देव बर्मन व राहुल देव जैसे संगीतकारों के साथ काम करना जीवन का अनूठा अनुभव था।
गंगा किनारे बीता बचपन
पंडित हरिप्रसाद कहते हैं कि उनका बालपन गंगा किनारे बनारस में बीता। संगीत की शुरुआत उनकी तबला वादक के रूप में हुई। अपने पिता की मर्जी के बिना उन्होंने संगीत सीखना शुरू किया था। उनके पिता चाहते थे कि वे कुश्ती के खिलाड़ी बने। अपने पिता के साथ अखाड़े में तो जाते थे लेकिन कभी भी उनका लगाव कुश्ती की तरफ कभी नहीं रहा।
शास्त्रीय संगीत से दिल से जुड़ा हुआ है
पं. हरिप्रसाद चौरसिया कहते हैं कि उनके पड़ोसी पंडित राजाराम ने ही उन्हें संगीत की बारीकियां सीखाई। इसके बाद बांसुरी सीखने के लिए वह वाराणसी के पंडित भोलानाथ प्रसाना के शिष्य बने। वे कहते हैं मुझे संगीत में
महारत हासिल करने की चाह ने संगीतज्ञ अलाउद्दीन खां की पुत्री और शिष्या अन्नापूर्णा देवी के पास जाना पड़ा। उनके प्रभावी से मेरे बांसुरी वादन में जादुई बदलाव आया।
आज के युवाओं को यही सन्देश देना चाहता हूं की वे भारतीय शास्त्रीय संगीत को समझें। यह दिल से जुड़ा संगीत है।