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जयंती पर याद किए गए बिहार हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन और बिहार विधान सभा के पूर्व अध्‍यक्ष लक्ष्मी नारायण सिंह 'सुधांशु'

डॉक्टर सुधांशु के कारण ही राष्ट्रभाषा परिषद और हिन्दी प्रगति समिति गठित हुई थी। उनकी जयंती पर हिंदी साहित्य सम्मेलन में संगोष्ठी और लघुकथा-गोष्ठी आयोजित की गई। विद्वानों ने हिंदी भाषा के उन्‍नयन और साहित्‍य में उनके योगदान को याद किया।

By Sumita JaiswalEdited By: Published: Mon, 18 Jan 2021 05:37 PM (IST)Updated: Mon, 18 Jan 2021 05:37 PM (IST)
जयंती पर याद किए गए बिहार हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन और बिहार विधान सभा के पूर्व अध्‍यक्ष लक्ष्मी नारायण सिंह 'सुधांशु'
डॉ लक्ष्मी नारायण सिंह 'सुधांशु' जी की तस्‍वीर पर पुष्‍पांजलि अर्पित करते लोग, जागरण फोटो ।

पटना, जागरण संवाददाता। हिन्दी भाषा के उन्नयन में भारत के जिन महानुभावों ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया, उनमें एक अत्यंत आदरणीय नाम डाॅ लक्ष्मी नारायण सिंह 'सुधांशु' जी का है। वे बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी थे और बिहार विधान सभा के भी अध्यक्ष रहे। राजनीति और साहित्य, दोनों के आदर्श व्यक्तित्व थे। राजनीति में उनका आदर्श 'महात्मा गांधी' और हिन्दी-सेवा में उनका आदर्श 'राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन' थे। 'राजनीति' और 'हिन्दी', उनके लिए 'देश-सेवा' की तरह थी। हिन्दी के लिए उनका अवदान असाधारण है। बिहार में राष्ट्र भाषा परिषद और बिहार हिन्दी प्रगति समिति की स्थापना का सारा श्रेय उन्हें ही जाता है।

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यह बातें, सोमवार की संध्या, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित जयंती समारोह की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही।

उन्होंने कहा कि स्वतंत्र-भारत की सरकार की राज-काज की भाषा 'हिन्दी' हो, इस विचार और आंदोलन के वे देश के अग्रिम-पंक्ति के नायक थे। देशरत्न डा राजेंद्र प्रसाद, पुरुषोत्तम दास टंडन तथा सुधांशु जी जैसे हिन्दी-भक्तों के कारण, भारत की संविधान सभा ने १४ सितम्बर १९४९ को, २० से अधिक भारतीय भाषाओं में से, जिन्हें 'राज-भाषा' का दर्जा दिया गया था, 'हिन्दी' को भारत-सरकार की राजकीय भाषा के रूप में चुना था। यह अलग और दुखद बात है कि संविधान सभा की उस भावना और संकल्प को आज तक पूरा नहीं किया जा सका। हिन्दी भारत की सरकार के कामकाज की भाषा भी नहीं बन पाई है, जबकि उसे देश की 'राष्ट्रभाषा' का पद प्राप्त होना चाहिए था। हिन्दी के प्रति उनकी निष्ठा ऐसी थी कि किसी ने जब उनसे यह पूछा कि 'बिहार विधान सभा' अथवा 'बिहार हिन्दी प्रगति समिति' में से किसी एक का अध्यक्ष पद चुनना हो तो आप किसे चुनेंगे? सुधांशु जी का उत्तर था - 'हिन्दी प्रगति समिति'!

समारोह का उद्घाटन करते हुए विश्वविद्यालय सेवा आयोग, बिहार के अध्यक्ष डा राजवर्द्धन आज़ाद ने कहा कि जो व्यक्ति साहित्यकार होता है और वह राजनैतिक भी होता है, तो वह इन दोनों ही धाराओं में मधुर सामंजस्य बनाने में सफल होता है। सुधांशी जी इस कल्याणकारी सामंजस्य के आदर्श उदाहरण थे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में पूर्णिया ज़िला की ख़ुशबू समाहित थी।

अतिथियों का स्वागत करते हुए, सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने कहा कि, सुधांशु जी बड़े कथाकार, कवि, समालोचक, पत्रकार और प्रतिष्ठित राजनेता थे। आचार्य नलिन विलोचन शर्मा समेत समकालीन साहित्यकारों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। उन्होंने निबंध, आलोचना,संस्मरण आदि गद्य की अनेक विधाओं को समृद्ध किया। सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा, राज कुमार प्रेमी, चंदा मिश्र, स्वामी गिरिधर गिरि ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

इस अवसर पर आयोजित लघुकथा- गोष्ठी में, डा शंकर प्रसाद ने 'दिवाकर की दीवार', पूनम आनंद ने 'रिश्वत', कुमार अनुपम ने 'सफ़र', डा शालिनी पाण्डेय ने 'सोंच', योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने 'वह पगहा तदा गई', सागरिका राय ने 'मास्क', पूनम देवा ने 'दान', डा विनय कुमार विष्णुपुरी ने 'बकरी', चितरंजन भारती ने 'किताब', श्याम नारायण महाश्रेष्ठ ने 'समधी' शीर्षक से अपनी लघुकथा का पाठ किया। मंच का संचालन सम्मेलन की कलामंत्री डा पल्लवी विश्वास ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।


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