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    बिहार रेजिमेंट: शौर्य और बलिदान की अमर गाथा, द्वितीय विश्वयुद्ध से गलवान तक गूंजा 'बजरंगबली की जय'

    Updated: Wed, 24 Dec 2025 02:40 AM (IST)

    बिहार रेजिमेंट भारतीय सेना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो अपने शौर्य और बलिदान के लिए जानी जाती है। इसकी स्थापना 1941 में हुई थी और इसने द्वितीय विश्व ...और पढ़ें

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    प्रतीकात्मक तस्वीर

    डिजिटल डेस्क, पटना। भारतीय सेना की बिहार रेजिमेंट केवल एक सैन्य इकाई नहीं, बल्कि शौर्य, अनुशासन और राष्ट्रभक्ति की जीवंत मिसाल है। इस रेजिमेंट की जड़े ब्रिटिश इंडियन आर्मी से जुड़ी हुई हैं।

    गुलामी के काल से ही इस रेजिमेंट के सैनिकों ने अपने शौर्य का जौहर रणभूमि दिखाते चले आ रहे हैं। ऐसे में आज इस आर्टिकल में हम बिहार रेजिमेंट के इतिहास के बारे में जानेंगे कि इस रेजिमेंट की शुरूआत कब और कैसे हुई।

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    शुरुआती दौर में इस सैन्य इकाई को 'बिहार रेजिमेंट के नाम से नहीं जाना जाता था। इसका गठन 1941 में ब्रिटिश भारतीय सेना के हिस्से के रूप में हुआ था, जब 11वीं (प्रादेशिक) बटालियन, 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट का नियमितीकरण किया गया और नई बटालियनें बनाई गईं।

    पहली बटालियन का नेतृत्व

    बिहार रेजिमेंट का द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बिहार रेजिमेंट की पहली बटालियन का नेतृत्व लेफ्टिनेंट कर्नल जे. आर. एच. ट्वीड ने किया। वे भारतीय सेना की बिहार रेजिमेंट की प्रथम बटालियन के पहले कमांडिंग ऑफिसर थे। इसी काल में रेजिमेंट ने अपनी अलग पहचान और प्रतिष्ठा स्थापित की।

    बिहार रेजिमेंट का औपचारिक गठन

    बिहार रेजिमेंट का औपचारिक गठन 1 नवंबर, 1945 को आगरा में लेफ्टिनेंट कर्नल आर.सी. म्यूलर द्वारा किया गया था, इसका सेंटर दानापुर में स्थापित किया गया था। दानापुर छावनी की स्थापना साल 1765 में हुई थी। यह भारत की दूसरी सबसे पुरानी छावनी मानी जाती है। गौरतलब है कि देश की सबसे पुरानी छावनी पश्चिम बंगाल की बैरकपुर कैंटोनमेंट है।

    1971 युद्ध में अखौरा की ऐतिहासिक जीत

    1971 के भारत-पाक युद्ध में बिहार रेजिमेंट की 10वीं बटालियन को पूर्वी पाकिस्तान में अखौरा पर कब्जा करने जैसा बेहद कठिन मिशन सौंपा गया। तेज और निर्णायक हमले में रेजिमेंट ने अखौरा पर नियंत्रण स्थापित किया। यह जीत रणनीतिक रूप से अहम साबित हुई और ढाका की ओर भारतीय सेना की बढ़त का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस साहसिक कार्रवाई के लिए रेजिमेंट को 'अखौरा' थिएटर ऑनर से सम्मानित किया गया।

    कारगिल में दिखाया अपना जौहर

    1999 के कारगिल युद्ध में दुश्मन बाटालिक सेक्टर की ऊंची पहाड़ियों पर काबिज था। बिहार रेजिमेंट ने कठिन परिस्थितियों में जुबर हिल और प्वाइंट 4268 जैसे महत्वपूर्ण ठिकानों को एक बार फिर अपने नियंत्रण में लिया। इस दौरान मेजर मरियप्पन सरवनन ने अग्रिम मोर्चे पर नेतृत्व करते हुए सर्वोच्च बलिदान दिया। रेजिमेंट को उनकी वीरता के लिए चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ यूनिट सिटेशन से सम्मानित किया गया।

    गलवान 2020 में फिर दिखाया पराक्रम

    15 जून 2020 को गलवान घाटी में बिहार रेजिमेंट ने एक बार फिर इतिहास रच दिया। कर्नल बी. संतोष बाबू के नेतृत्व में रेजिमेंट ने चीनी सैनिकों का डटकर सामना किया। भीषण हाथापाई में कर्नल बाबू सहित रेजिमेंट के 12 जवान शहीद हुए, जबकि कुल 20 भारतीय सैनिकों ने सर्वोच्च बलिदान दिया। हालांकि, दुश्मन को भारतीय सीमा में एक इंच भी आगे बढ़ने नहीं दिया गया।

    क्यों खास है बिहार रेजिमेंट

    बिहार रेजिमेंट मुख्य रूप से बिहार, झारखंड और ओडिशा क्षेत्र की वीर परंपरा का प्रतिनिधित्व करती है, हालांकि भारतीय सेना की जनरल भर्ती के माध्यम से देश का कोई भी नागरिक इसमें शामिल हो सकता है। रेजिमेंट के प्रमुख बैटल ऑनर्स में हाका, गंगाव, अखौरा और बाटालिक शामिल हैं, जबकि थिएटर ऑनर्स में बर्मा, ईस्ट पाकिस्तान 1971 और कारगिल दर्ज हैं।

    युद्ध घोष, प्रतीक और आदर्श

    रेजिमेंट का युद्ध घोष 'बजरंग बली की जय' और 'बिरसा मुंडा की जय' है। इसका ध्वज वाक्य 'करम ही धर्म' है। रेजिमेंट का प्रतीक चिन्ह अशोक स्तंभ के तीन सिंह हैं, जिन्हें 1941 में कैप्टन एम. हबीबुल्लाह खान खट्टक ने चुना था। ये सिंह शक्ति, साहस और आत्मविश्वास के प्रतीक माने जाते हैं।