Bihar Politics: दूसरों की संभावना को लंगड़ी मारने वाले 'वोटकटवा' भरते सरकारी खजाना, दिलचस्प है इनका किरदार
बिहार की राजनीति में 'वोटकटवा' उम्मीदवारों का एक दिलचस्प किरदार है। ये उम्मीदवार खुद तो शायद ही जीतते हैं, पर दूसरों की संभावनाओं को कम करते हैं। इनकी जमानत राशि जब्त होने से सरकारी खजाने में योगदान होता है। राजनीतिक दल अक्सर इनका इस्तेमाल विपक्षी दलों के वोट काटने के लिए करते हैं। चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार, वोटकटवा उम्मीदवारों की जमानत राशि जब्त हो जाती है, जिससे सरकारी राजस्व में वृद्धि होती है।
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दूसरों की संभावना को लंगड़ी मारने वाले 'वोटकटवा' भरते सरकारी खजाना
व्यास चंद्र, पटना। इस बार भी बड़ी संख्या में निर्दलीय ताल ठोकने की तैयारी में है। रोचक पहलू यह कि पिछले परिणामों और बिहार के चुनावी परिदृश्य से अपने भविष्य का आकलन करने के बावजूद ऐसे प्रत्याशी मैदान में उतरने से संकोच नहीं करते। हालांकि, कई बार उनके वोट जीत-हार के निर्णय को प्रभावित भी कर जाते हैं।
दूसरा योगदान सरकारी खजाने में उनकी जमानत राशि के जरिये होता है, जो पर्याप्त मत नहीं मिलने के कारण जब्त हो जाती है। चुनाव आयोग के नियमानुसार, किसी भी प्रत्याशी को कुल वैध मतों का कम से कम 1/6 यानी 16.67 प्रतिशत वोट पाना आवश्यक है, तभी उसकी जमानत सुरक्षित रहती है, अन्यथा जमा राशि जब्त कर ली जाती है।
विधानसभा चुनाव में सामान्य श्रेणी के प्रत्याशियों के लिए जमानत की राशि 10 हजार, जबकि अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए पांच हजार निर्धारित है। इस तरह से 2010 में लगभग 2.82 करोड़, 2015 में 2.93 करोड़ तथा 2020 में 3.20 करोड़ रुपये सरकारी खजाने में जमा किए गए।
इस तरह से तीन विधानसभा चुनावों में यह संख्या आठ करोड़ से ज्यादा हो गई है। जब कोई प्रत्याशी तय वोट ले आता है तो भले उसकी हार हो जाए, उसकी जमानत राशि लौटा दी जाती है।
तीन चौथाई से अधिक नहीं बचा पाते जमानत:
चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि विधानसभा चुनावों में औसतन 80-85 प्रतिशत प्रत्याशियों की जमानत जब्त होती है। इसका आशय है कि अधिसंख्य प्रत्याशी आवश्यक वोट प्रतिशत प्राप्त ही नहीं कर पाते। इसके बावजूद चुनाव मैदान में उतरने की प्रवृत्ति कम नहीं हो रही। दरअसल, ऐसे प्रत्याशी न तो बड़े दलों की तरह मजबूत संगठन और संसाधन रखते हैं, और न ही इनके पास जनता में व्यापक पकड़ होती है।
बावजूद इसके, नामांकन पत्र दाखिल करने और चुनाव लड़ने का रोमांच इन्हें आकर्षित करता है। कई बार तो मतों के बंटवारे की मंशा से ही वे मैदान में होते हैं। तब उनकी पीठ पर किसी-न-किसी मजबूत राजनीतिक दल या प्रत्यशी का हाथ होता है। सामान्य बोलचाल में ऐसे प्रत्याशियों को वोटकटवा कहते हैं। ये किसी बड़े प्रत्याशी के वोट बैंक में सेंध लगाकर उसका गणित गड़बड़ा देते हैं।
प्रतिष्ठा और पहचान का प्रसंग भी
बिहार जैसे राज्य में जातिगत समीकरण और स्थानीय मुद्दे राजनीति को गहराई से प्रभावित करते हैं। ऐसे में वोटकटवा प्रत्याशी प्राय: किसी खास वर्ग या क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का दावा कर अपने वोटरों को खींचते हैं। हालांकि, चुनाव में उतरने का हर किसी को लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन इससे चुनावी प्रक्रिया की गंभीरता पर प्रश्न उठते हैं।
जब हजारों प्रत्याशी सिर्फ कुछ सौ या हजार वोटों तक सीमित रह जाते हैं, तो यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए शुभ संकेत नहीं माना जाता। यह भी सच है कि कई युवाओं और स्थानीय नेताओं के लिए चुनाव लड़ना प्रतिष्ठा और पहचान बनाने का जरिया बन गया है। वे जानते हैं कि परिणाम चाहे कुछ भी हो, लेकिन चुनावी दंगल के दांव से उन्हें थोड़ी-बहुत राजनीतिक पहचान तो मिल ही जाएगी!
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