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    Bihar Eleciton 2025: तोल-मोल के बीच अवसरवादी राजनीति, नया झंडा और चेहरा पुराना; क्या कबूलेंगे वोटर?

    Updated: Mon, 13 Oct 2025 03:12 PM (IST)

    बिहार की राजनीति में चुनावी सरगर्मी के साथ ही अवसरवादिता और दल-बदल का खेल शुरू हो गया है। नेता पुत्र मोह में पार्टियाँ बदल रहे हैं, तो कुछ अवसर देखकर घर वापसी कर रहे हैं। गठबंधन की राजनीति में भी बदलाव देखने को मिल रहा है। मतदाता अवसरवादी राजनीति को कितना स्वीकार करेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा। फिलहाल, कई नेता दल-बदल के लिए मौके की तलाश में हैं।

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    बिहार में तोल-मोल के बीच अवसरवादी राजनीति


    दीनानाथ साहनी, पटना। परवान चढ़ती चुनावी फिजा में अवसरवादिता, जोड़-तोड़, चुनावी तिकड़म, दलबदल, सब रंग चढ़ने लगा है। कोई पुत्र मोह में दल-बदल का रिकार्ड बना रहा, तो कोई अवसरवादिता का लाभ उठाने के फिराक में घर वापसी का राग अलाप रहा है। इस बार चुनावी गठबंधन भी रोचक मोड़ पर है।

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    2020 में एनडीए के संग गांठ बांधकर चुनाव लड़े क्षेत्रीय दल के जाति विशेष के क्षत्रप अब महागठबंधन के साथ गलबहियां डाले हैं, तो कोई एनडीए में आकर सीटों का तोल-मोल करने में जुटे है।

    अगर पिछले चुनाव में विधायक बने लोगों की दोबारा उम्मीदवारी को आधार मानें, तो इस बार थोक भाव में ऐसे प्रत्याशी सामने होंगे, जिनके हाथ में नई पार्टियों का झंडा-एजेंडा, नारा होगा।

    ऐसे भी विधायक हैं, जिनके पास पार्टी की मुहर होगी। प्रश्न यह कि अवसरवादी राजनीति में तिकड़मी प्रत्याशियों के इस रंग को मतदाता कितना स्वीकार करेंगे? बिहार में गठबंधन की राजनीति मजबूरी बनती जा रही है।

    मजे की बात है कि जनता के स्तर पर राजनीति की अस्थायी दोस्ती-दुश्मनी वाली परिभाषा आत्मसात की जा चुकी है, लेकिन अराजक अवसरवाद, स्वार्थ की खातिर पाला बदलना, दल-बदलू नेताओं की फितरत बनती जा रही है।

    बिहार की राजनीति पर कई पुस्तकें लिख चुके प्रो. डॉ. अमर कुमार सिंह कह रहे कि जीत-हार के समीकरण ने पलटीमारी की मजबूत पृष्ठभूमि तैयार कर दी है।

    अभी और बुलंदी पाएगा दल बदल का यह सीन

    चुनाव के समय में राजनीतिक पार्टियां यह बखूबी समझती हैं कि हर दल-बदलू नेता तराजू पर मेढक तौलने के समान है, क्योंकि ऐसे नेताओं की निष्ठा पार्टी के प्रति नहीं होती। जब ऐसे नेताओं का स्वार्थ सधता है, तो एक दल में टिके रहते हैं। स्वार्थ की पूर्ति नहीं होती है तो घर वापसी का राग अलापते हुए दूसरे दल में चले जाते हैं।

    उदाहरण अभी से ही सामने आने लगे हैं। आने वाले दिन में यह सीन और बुलंदी पाएगा। रोचक यह कि कई तो उसी पाले में आ चुके हैं या आने की तैयारी में हैं, जिसकी घोर आलोचना ही उनकी पिछली जीत का आधार रही। इस बार मतदाता उनकी जुबान बदली पर भरोसा करेंगे या नहीं?

    ऐसे एक नहीं, दर्जनों प्रश्न हैं। बड़ा प्रश्न यह कि वोटरों के स्तर पर इस बात की परख होगी कि वे किसी गठबंधन को अधिक अहमियत देते हैं या इनके बदले चेहरों को। फिलहाल खेमेबंदी में थोक भाव से विधायक और नेता दल-बदल के लिए मौके की प्रतीक्षा में हैं।

    कई पाला बदल भी चुके हैं। वोटर यह ‘सीन’ वोटर विधानसभा में सरकार द्वारा बहुमत सिद्ध करने के दौरान ही देख चुके हैं, जब कई विधायक दोस्ती-दुश्मनी भूल कर पाला बदलने में पीछे नहीं रहे।