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बिहार में गरीबी-गरीबी की रट लगाने वालों को आंकड़ों ने लगाई जोर की चपत

बिहार में लैंडलॉक जैसे शब्दों को वे चलन से बाहर करना चाहते हैं। अब वे आंकड़ों को नहीं समझना चाहते हैं तो न समङों। जब पूरी दुनिया इस पर चलती है तो इनके नकारने से क्या बिगड़ जाएगा?

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 06 Mar 2021 11:16 AM (IST)Updated: Sat, 06 Mar 2021 10:58 PM (IST)
बिहार में गरीबी-गरीबी की रट लगाने वालों को आंकड़ों ने लगाई जोर की चपत
आंकड़े बताते हैं कि लोग अपने हुनर का लाभ दूसरों को देने के लिए जाते हैं।

पटना, आलोक मिश्र। आजकल जोर या तो कागजों का है या आंकड़ों का। आप चाहे जितने सही हों, अगर कागज सही नहीं है तो आप गलत माने जाएंगे। इसी तरह आंकड़ों के बोल को कोई नहीं काट सकता। बिहार में गरीबी-गरीबी की रट लगाने वालों को इस बार आंकड़ों ने जोर की चपत लगाई है। गुरुवार को जारी हुए ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स में आर्थिक अवसर मुहैया कराने के मामले में पटना देश में पांचवें नंबर पर दिखाया गया है। कोरोना काल में बिहार लौटे लाखों कदमों को देख छवि बनी थी कि रोजगार न होने के कारण लोग बाहर जाते हैं। जबकि आंकड़े बताते हैं कि लोग अपने हुनर का लाभ दूसरों को देने के लिए जाते हैं न कि आर्थिक अवसर के लिए।

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आंकड़े बताते हैं कि केवल दिल्ली, बेंगलुरू, हैदराबाद और चेन्नई ही इस श्रेणी में पटना से आगे हैं, बाकी सब पीछे। इससे स्वत: सिद्ध होता है कि बिहार की प्रतिभा का इनसे इतर अन्य राज्यों में पलायन का उद्देश्य मात्र आर्थिक अवसर प्राप्त करना नहीं हो सकता। निश्चित ही इसके पीछे अपने हुनर से अन्य प्रदेशों को परिचित कराने की धारणा है। यह यथार्थ तथ्य भी कल ही इन आंकड़ों के साथ ही प्रकट हुआ। अब हम कह सकते हैं कि हम पूरी तरह से अपने पैरों पर खड़े हैं और आíथक स्वावलंबन के साथ खड़े हैं। हम रोजी-रोजगार मुहैया करा सकते हैं। हमें पिछड़ा कदापि न समझा जाए। समझदारों के लिए यह समझना तो कतई मुश्किल न होगा, लेकिन आलोचकों को नहीं समझाया जा सकता, क्योंकि वे आंकड़ों से बात करने में विश्वास नहीं करते। उनके हिसाब से तो सबकुछ खराब ही है। उन्हें प्रगति केवल उद्योगों के विस्तार में दिखाई देती है। 

आंकड़े और भी जारी हुए हैं। उनमें बिहार की गिनती न देख आलोचक उसके सहारे आलोचना में जुटे हैं। अब उन्हें कौन समझाए कि तुलना जहां करनी चाहिए, वहीं करिए तभी सही तस्वीर दिखेगी। अब सुरक्षा व्यवस्था के मामले में पटना का 47वां स्थान है तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? बिहार में लोग स्वयं सुरक्षा के नारे पर विश्वास करते हैं। वे खुद के मामले खुद निपटाने पर जोर देते हैं। इसलिए यह श्रेणी उनके मतलब की है ही नहीं। तो इसके आंकड़ों का क्या मोल? अब क्वालिटी ऑफ लाइफ में चेन्नई, कोयंबटूर, नवी मुंबई, इंदौर और वडोदरा अगर टॉप फाइव में हैं और पटना 42वें पर तो इसे समझने के लिए आपको बिहार आना पड़ेगा। क्योंकि यहां की लाइफ अपनी क्वालिटी पर चलती है। ऐसे में तुलना के जब मानक ही बदले हों तो पायदान का कोई मतलब ही नहीं। यहां की क्वालिटी ऑफ हेल्थ से तो कोरोना भी पार नहीं पा पाया, यह सभी ने देखा। ऐसे में इस श्रेणी में 25वां स्थान यह सिद्ध करता है कि हेल्थ के मानकों में भी फेर है। बहरहाल जिसमें सिद्ध करना था, बिहार ने कर दिया कि उसमें बहुत दम है।

भारी पड़ा जनकल्याण : इस समय प्रदेश सरकार के पशु एवं मत्स्य संसाधन मंत्री व सरकार की सहयोगी विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) के मुकेश सहनी के दिन उल्टे चल रहे हैं। चाहे पार्टी हित में उनके कदम उठें या जनहित में, हमेशा आलोचना के घेरे में पड़ जाते हैं। ताजा वाकया यह है कि एक सरकारी कार्यक्रम में 23 मछुआरों को वाहनों के लिए कर्ज दिया जाना था। अति व्यस्त होने के कारण सहनी जी जा नहीं सकते थे, लेकिन दूसरी तरफ मछुआरों के हित का मामला था। बहुत बड़ा धर्मसंकट था। इससे उबरने के लिए उन्होंने रास्ता निकाला और अपने भाई को अपने लाव-लश्कर के साथ भेज दिया। उद्देश्य केवल इतना कि कार्यक्रम में लगे कि स्वयं मंत्री जी आए हैं। कोई छोटा महसूस न करे। लेकिन विपक्ष का क्या, उसे तो बस विरोध का बहाना चाहिए। बहाना सॉलिड था, सरकारी तंत्र का दुरुपयोग। इसके पीछे की जनकल्याण की भावना उन्हें दिखाई न दी। बस, सदन में मामला उठा दिया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार पर सवाल था तो उन्हें भी इसकी आलोचना करनी पड़ी। सहनी जी कटघरे में खड़े हो गए। मुख्यमंत्री को उन्होंने बताया कि पैर में दर्द के कारण उन्होंने सरकारी इनोवा भाई की फाच्यरुनर से बदल ली है। इसी कारण यह गफलत पैदा हुई। हालांकि जवाब किसी को नहीं पचा। विपक्ष का काम तो बन गया, लेकिन सहनी जी की परोपकारी भावना पिट कर रह गई।

[स्थानीय संपादक, बिहार]


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