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    Bihar Election 2025: बिहार में जातिवाद को बेअसर करती रही विकास की राजनीति, इस बार क्या हैं समीकरण?

    Updated: Sun, 19 Oct 2025 02:02 PM (IST)

    बिहार की चुनावी राजनीति में जातिवाद का प्रभाव हमेशा से रहा है, लेकिन विकास और सुशासन जैसे मुद्दों ने इसे कई बार बेअसर किया है। 2005 से पहले जातिवाद का बोलबाला था, पर नीतीश कुमार के विकास कार्यों ने स्थिति बदल दी। 2010 और 2020 के चुनावों में विकास मुख्य मुद्दा रहा। अब 2025 के चुनाव में भी विकास और रोजगार पर जोर है, जिससे पता चलता है कि मुद्दे जातिवाद से ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकते हैं।

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    बिहार में जातिवाद को बेअसर करती रही विकास की राजनीति

    दीनानाथ साहनी, पटना। बिहार में जातीय आधार पर कई राजनीतिक पार्टियां हैं। वहीं बड़ी पार्टियां भी जातीय आधार पर राजनीति को बढ़ावा देती हैं। यही वजह है कि चुनावी राजनीति पर एक बड़ा आरोप लगता है कि जातिवाद सबसे बड़ा मुद्दा है। यह आंशिक सच है। जातियां चुनाव को प्रभावित करती हैं, लेकिन चुनाव जीतने का यह अंतिम उपाय नहीं है।

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    यानी, चुनाव जीत की गारंटी जातीय नहीं दिलाती हैं। पिछले 20 वर्षों में जातिवाद के साथ विकास का मुद्दा भी प्रमुख रहा है। राजनीतिक पार्टियां जातिवाद पर ही नहीं, मुद्दों पर भी चुनाव लड़ती रही हैं, जबकि चुनाव में टिकट बांटने में जातिवाद की सबसे अधिक चर्चा होती है।

    पिछले चुनाव परिणाम बताते है कि अक्सर जातिवाद पर मुद्दे भारी रहे हैं। बेशक कुछ जातियों का बड़ा हिस्सा खास-खास राजनीतिक पार्टियाें से जुड़ा हुआ है। फिर भी उनकी तादाद अधिक है, जो जाति के बदले मुद्दों पर मतदान करते है।

    2005 से पहले जातिवाद का रहा हल्ला बोल, फिर मुद्दे ने ले ली जगह

    2005 से पहले तक बिहार की चुनावी राजनीति में जातिवाद का हल्ला बोल था। इसका असर भी चुनाव परिणाम को प्रभावित करता था। 1990 में मंडल कमीशन की सिफारिशों के लागू होने के बाद बड़ी आबादी आरक्षण के सवाल पर गोलबंद हुई थी।

    हालांकि, यह किसी जाति की गोलबंदी नहीं कही जा सकती है। इसे कुछ राजनीतिक पार्टियों ने सामाजिक न्याय का नाम दे दिया। प्रारंभ में आरक्षण का जोरदार विरोध भी हुआ। विरोध ने समाज के उस तबके को गोलबंद कर दिया, जिन्हें सरकारी सेवाओं में आरक्षण का लाभ मिल रहा था। इस

    गोलबंदी का असर यह हुआ कि आज कोई भी राजनीतिक पार्टी आरक्षण का विरोध करने का साहस नहीं जुटा सकती। सरकार ने सवर्ण गरीबों को भी आरक्षण का लाभ दे दिया है।

    नीतीश कुमार ने विकास कार्यों से जातिवाद और नक्सलवाद को बेअसर करने का बड़ा काम किया। सके बाद हर राजनीतिक पार्टी के लिए चुनाव में विकास प्रमुख मुद्दा हो गया।

    विकास और सुशासन के मुद्दे पर लड़ा चुनाव

    2010 में बिहार विधानसभा का चुनाव पूरी तरह सुशासन और विकास के मुद्दे पर लड़ा गया। हालांकि इसके पहले के चुनाव में विकासहीनता और अपराध बड़ा मुद्दा बना था। इसके आधार पर एनडीए की जीत हुई थी और 15 साल से सत्ता रही राजद की हार हुई थी, मगर 2010 में बिहार चुनाव पूरी तरह विकास और सुशासन के मुद्दे पर ही लड़ा गया था।

    लोग अपराध से ऊब गए थे। विकास की भूख जग की थी। यही वजह थी कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए काे भारी जीत हासिल हुई थी। तब सुशासन और विकास का मुद्दा कथित जातिवाद पर बहुत भारी पड़ गया था। जदयू को 115 और भाजपा को 102 सीटें मिली।

    32 सीटों के नुकसान के साथ राजद 22 पर सिमट गया। ये सीटें उसे विधानसभा में मुख्य विपक्ष का दर्जा नहीं दिला सकीं। 2015 का चुनाव भी मुद्दा पर ही लड़ा गया। उसमें नीतीश कुमार और लालू प्रसाद एक साथ थे।

    बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाना उस जा चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा था। 2020 में जदयू और भाजपा ने एकसाथ चुनाव लड़ा और इस बार भी विकास ही प्रमुख मुद्दा बना। परिणाम एकबार फिर से एनडीए की सरकार बनी।

    इस बार विकास और रोजगार मुद्दा

    2025 के बिहार चुनाव में भी जातिवाद के ऊपर मुद्दे को रखा जा रहा है। एनडीए बिहार का तेज विकास का वादा कर रही है। वहीं मुख्य विपक्षी राजद भी रोजगार के साथ-साथ विकास का मुददा उठा रही है। बेशक इन्हीं मुद्दों पर वोटर अपना निर्णय देंगे।

    सभी राजनीतिक पार्टियों के मुद्दे ऐसे हैं, जिनसे पूरे समाज के लाभ को ध्यान में रखा गया है। यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं है कि विधानसभा चुनावों में औसत 20 प्रतिशत वोट निर्दलीय एवं अन्य छोटे दलों के खाते में चले जाते हैं।

    अगर सब लोग जाति के आधार पर भी वोट देते हैं तो इस वोट की गणना किस खाते में की जाएगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि जातियां चुनाव को प्रभावित करती हैं, लेकिन मुद्दे अगर बड़े और सबके फायदे के लिए हों तो वे जाति के आधार पर होने वाली गोलबंदी को बेअसर भी कर देते हैं।