स्वतंत्रता सेनानी भारती आशा सहाय का निधन, आजादी की लड़ाई में नेताजी बोस के साथ हुई थीं शामिल
प्रशिक्षण के तुरंत बाद आशा अपनी रेजिमेंट के साथ 1945 में बैंकॉक से सुदूर बर्मा (वर्तमान म्यांमार) तक पैदल मार्च करने के लिए निकल पड़ीं। बमबारी के बीच महिला सशस्त्र बल अडिग रही और उन्होंने कदम-कदम बढ़ाए जा गाया - जो कि भारतीय राष्ट्रीय सेना का रेजिमेंटल त्वरित मार्च था।

जागरण संवाददाता, पटना। हिंदुस्तान को गुलामी की बेड़ी से बाहर निकालने में रणबांकुरों की भूमिका रही। उनमें भागलपुर की भारती चौधरी का विशेष योगदान रहा। जिन्होंने 17 वर्ष की उम्र में सुभाष चंद्र बोस की टीम भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) रानी लक्ष्मीबाई रेजिमेंट में शामिल होने के साथ देश की सेवा जुटी रहीं।
जापान में दो फरवरी 1928 को जन्म लेने वाली भारती ने घूम-घूम कर आजादी का नारा दिया था। 97 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी आशा चौधरी का निधन बुधवार को राजधानी के नमन आश्रय अपार्टमेंट में हुआ। आशा चौधरी के पुत्र संजय चौधरी ने बताया कि मां के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार बुधवार को बांस घाट पर होगा।
जापान में प्राप्त की थी प्रशिक्षण
स्वतंत्रा सेनानी स्व. आशा चौधरी के पुत्र संजय चौधरी ने बताया कि हमारे पिताजी स्व. आनंद मोहन सहाय पटना में मेडिकल की पढ़ाई करते थे।
गांधीजी द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन से प्रेरित होकर उन्होंने पढ़ाई छोड़ देश की सेवा में लग गए। पिताजी 1923 में जापान चले गए थे। वहीं पर भारती घर का नाम आशा का जन्म हुआ था।
आनंद मोहन सहाय भारत में स्वतंत्रता आंदोलन और जापान में रास बिहारी बोस के साथ काम करते थे। पिताजी को देश सेवा के लिए कार्य करते देख आशा चौधरी के दिल में राष्ट्रप्रेम जागृत हुआ।
तीन बहनों में सबसे बड़ी आशा चौधरी 15 वर्ष की उम्र में नेताजी सुभाष चंद्र बोस से मिली थीं। 17 वर्ष की उम्र में महिलाओं का रेजिमेंट रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल हुई थीं।
इस दौरान वे 1945 में आर्मी की तरह सारी ट्रेनिंग प्राप्त की थी। बाद में लेफ्टिनेंट के पद पर पदोन्नत हुई। भारती चौधरी के घर का नाम आशा था।
उनके आईएनए में शामिल होना उस समय की महिलाओं के लिए साहसिक कदम था। देश की सेवा के लिए उन्होंने न केवल घर और परिवार छोड़ा बल्कि जापान से लौटने के बाद देश प्रेम के प्रति महिलाओं को जागरूक करती रहीं।
आजादी के एक वर्ष पूर्व जेल से हुई थी रिहा
आजादी के एक वर्ष पूर्व भारती चौधरी जेल से 1946 में रिहा हुई थीं। उन्हें सिंगापुर जेल में बंदी बना कर रखा गया था। जेल से रिहा होने के बाद भारत लौटी।
इसके बाद उन्हाेंने महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने को लेकर जागरूक करती रहीं। इस दौरान वे क्रांतिकारी नेताओं के साथ जुड़ी रहीं।
एक बार भारती से महात्मा गांधी ने पूछा था कि मां बंगाली पिता बिहारी हैं तो तुम क्या हो। जवाब देते हुए कही थी मैं हिंदुस्तानी हूं।
देश की पहली आजादी पर पटना के गांधी मैदान 15 अगस्त 1947 को आयोजित कार्यक्रम में उन्हें बुलाया गया था। वे कार्यक्रम में जाने से मना कर दी थी।
उन्होंने क्षोभ व्यक्त करते हुए कहा था कि देश की राजनीति ने देशवासियों के साथ धोखा किया है। देश को बंटबारा कर अमन शांति को छीन लिया। भारती को जहां भी मौका मिलता वे क्रांतिकारियों की कहानी को अवश्य सुनाती थीं।
पेंशन लेने से कर दी मना
देश की आजादी के बाद उन्हें सरकार की ओर स्वतंत्रता सेनानी पेंशन दिया गया था। वो पेंशन लेने से मना कर दी थीं। वे कहती थीं कि जिन्हें जरूरत है पैसे को उन्हें दिया जाए।
आजाद भारत में वे प्राय भागलपुर में रहा करती थीं। वे अपने परिवार और संगे संबंधी को आंदोलन की कहानी सुना कर देश प्रेम का बीज हृदय में बोते रहीं।
अपनी किताब में वह लिखती हैं, “सच कहूं तो, मेरे सिर पर बम गिरने सहित कोई भी चीज हिंदी लिखना सीखने से ज्यादा आसान होगी।” दरअसल, जब एक भारतीय परिवार ने उन्हें मक्के की रोटी परोसी, तो उन्होंने सोचा कि यह मक्खियों से बनी चपाती है!
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