Ara Lok Sabha Seat: आरा में इस बार आर-पार की लड़ाई, जातीय समीकरण की मुख्य भूमिका
1989 में आरा से रामेश्वर प्रसाद जो इंडियन पीपुल्स फ्रंट (अब भाकपा माले) के उम्मीदवार थे जीत दर्ज कर संसद पहुंचे थे। 2019 के चुनाव में भाजपा के आरके सिंह को 566480 वोट मिले थे और भाकपा माले के राजू यादव को 419195 वोट मिले थे। तब जीत का अंतर 13.6 प्रतिशत का था। हालांकि तब मोदी लहर थी लेकिन इस बार भीषण गर्मी में हवा का रुख अलहदा है।

दीनानाथ साहनी, पटना। आरा लोकसभा क्षेत्र में एनडीए व महागठबंधन के बीच कांटे की टक्कर है। ऐसे में जातीय समीकरण को साधने के लिए दोनों गठबंधन के उम्मीदवारों को खूब पसीना बहाना पड़ रहा है। केंद्रीय मंत्री आरके सिंह को तीसरी बार उम्मीदवार बनाकर भाजपा यहां से जीत की हैट्रिक लगाकर इतिहास रचने की तैयारी में है। वहीं भाकपा माले के उम्मीदवार सुदामा प्रसाद भी जीत हासिल कर इतिहास दोहराने की पुरजोर कोशिश में हैं।
1989 में आरा से रामेश्वर प्रसाद जो इंडियन पीपुल्स फ्रंट (अब भाकपा माले) के उम्मीदवार थे, जीत दर्ज कर संसद पहुंचे थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के आरके सिंह को 5,66,480 वोट मिले थे और उनके प्रतिद्वंदी भाकपा माले के राजू यादव को 4,19,195 वोट मिले थे। तब जीत का अंतर 13.6 प्रतिशत का था।
हालांकि तब मोदी लहर थी, लेकिन इस बार भीषण गर्मी में हवा का रुख अलहदा है। इसलिए आरा हॉट सीट बन गया है। लगातार दो जीत से चर्चा में आए केंद्रीय मंत्री आरके सिंह और माले के तरारी विधानसभा विधायक सुदामा प्रसाद के बीच इस बार यहां की चुनावी जंग आर-पार के मोड में दिख रही है, जिसमें जातीय समीकरण की मुख्य भूमिका होगी।
यदि आरके सिंह यहां से जीते तो वे लगातार तीसरी जीत का रिकॉर्ड बनाएंगे, क्योंकि आरा ने किसी को लगातार तीसरी बार चुनकर संसद नहीं भेजा है। चंद्रदेव प्रसाद वर्मा यहां से एकमात्र सांसद हुए, जो 1977 और 1980 में लगातार दो बार जीते। इसके बाद 1996 में उन्हें जीत मिली।
हर जगह रोजगार अहम मुद्दा
आरा के चुनावी रण में जातीय समीकरण अपनी जगह है। रुचिकर यह है कि इस जंग में रोजगार अहम मुद्दा बनकर उभरा है। इसे यूं समझें कि वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के प्रो.एसएन सिन्हा कहते हैं- मोदी सरकार के दस वर्षों में रोजगार पर काम नहीं हुआ। पढ़े-लिखे युवाओं में बेरोजगारी बढ़ रही है, युवा हताश भी हैं।
रोजगार के सवाल पर उदवंतनगर निवासी समाजसेवी डा.राजेन्द्र सिंह भी मुखर होकर कहते हैं- यदि बच्चों को पढ़ा रहे हैं तो नौकरियां भी चाहिए। सरकार धीरे-धीरे नौकरियां खत्म करती जा रही हैं। ऐसे में पढ़े-लिखे युवा क्या करेंगे?
हालांकि प्रो.केसी तिवारी स्वीकार करते हैं- हां, रोजगार अहम मुद्दा है। बीते दस सालों में देश में नौकरियों की अपेक्षा रोजगार सृजन में तेजी जरूर आई है, लेकिन चुनाव में तो जातीय समीकरण का रंग ही हर जगह चढ़ रहा है। इसने इलाके के लोगों को भी बांट दिया है।
जाहिर है, अगड़ी जाति के ज्यादातर मतदाता जहां आरा सीट पर एनडीए के आरके सिंह की जीत का दावा कर रहे हैं, वहीं महागठबंधन पिछड़ी, अतिपिछड़े और दलित जातियों के पक्ष में गोलबंदी में जुटा है। वैसे समाज के वंचित तबकों से ताल्लुक रखने वाले लोगों का एक बड़ा हिस्सा नीतीश कुमार का भी समर्थन करता नजर आ रहा है।
आरा से हर रोज पटना आकर मेडिकल स्टोर में काम करने वाले विज्ञान में स्नातक उत्तीर्ण योगेश कुमार सिंह नाराजगी से कहते हैं- मुझको एक अदद नौकरी की जरूरत है, जो उन्हें बीते 10 बरसों से नहीं मिली है। पहले ट्यूशन पढ़ाकर अपना गुजर-बसर करता था। अब ब्याह हो गया तो परिवार चलाने के लिए मेडिकल स्टोर में काम करता हूं।
योगेश अपनी बेरोजगारी का ठीकरा नीतीश सरकार पर फोड़ते हैं। कहते हैं-इस सरकार ने पिछड़ी जातियों के लिए रोजगार तो दे दिया, लेकिन हमारा क्या? हम भी गरीब हैं लेकिन हमारी बात कोई नहीं सुन रहा। चुनाव में नेता सब तो जातियों को ही रिझाने में जुटे हुए हैं।
वोटों का समीकरण
आरा में वोटों का समीकरण जातीय गोलंबदी में उलझा हुआ है। यदि जाति की बात की जाए तो यहां यादव से लेकर राजपूत-भूमिहार, मुस्लिम से लेकर ब्राह्मण और अत्यंत पिछड़ी जातियों की संख्या ज्यादा है। दलित वर्ग भी खासा है। हर जाति का अपना-अपना महत्व है। जिन्हें कोई भी पार्टी नजरअंदाज नहीं कर सकती है। इसमें अत्यंत पिछड़ी एवं दलित जातियों का वोट चुनाव में निर्णायक साबित होने वाला है।
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