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    बिहार की धरोहरों पर शोध को बढ़ावा देने की जरूरत

    By JagranEdited By:
    Updated: Tue, 23 Jul 2019 06:31 AM (IST)

    भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद नई दिल्ली एवं नव नालंदा महाविहार के संयुक्त तत्वावधान में चल रही राष्ट्रीय स्तर की कार्यशाला के तीसरे दिन कुल तीन व्याख्यान सत्रों का आयोजन किया गया। आज के सत्रों में पालि साहित्य बौद्ध साहित्य तथा रामायण एवम महाभारत के समय के कालखंडों पर भी चर्चा हुई। उपस्थित वक्ताओं ने इतिहास के अध्ययन के संदर्भ में उपरोक्त विषय संदर्भों पर भी मंथन किया।

    बिहार की धरोहरों पर शोध को बढ़ावा देने की जरूरत

    नालंदा : भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली एवं नव नालंदा महाविहार के संयुक्त तत्वावधान में चल रही राष्ट्रीय स्तर की कार्यशाला के तीसरे दिन कुल तीन व्याख्यान सत्रों का आयोजन किया गया। आज के सत्रों में पालि साहित्य, बौद्ध साहित्य तथा रामायण एवम महाभारत के समय के कालखंडों पर भी चर्चा हुई। उपस्थित वक्ताओं ने इतिहास के अध्ययन के संदर्भ में उपरोक्त विषय संदर्भों पर भी मंथन किया। विद्वानों ने रामायण व महाभारत काल के ऐतिहासिक स्त्रोतों को पता लगाने तथा शोध संदर्भों को विकसित करने की बात कही। वहीं काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो सी पी सिन्हा ने बिहार के पुरातात्विक अवशेषों का परिचय देते हुए अत्यंत प्राचीन धरोहरों को इतिहास के अध्ययन की ²ष्टि से महत्वपूर्ण बताया। कहा कि इन धरोहरों की रक्षा के संदर्भ में शोध कार्य को बढ़ावा मिलना चाहिए। 

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    बौद्ध दर्शन व अध्ययन का भारत में कभी नहीं हुआ लोप

    प्रात: कालीन सत्र में प्रथम वक्ता के रूप में पुणे विश्वविद्यालय, पुणे से आए प्रोफेसर महेश देवकर के व्याख्यान हुए। जिनका व्याख्यान मूलत: बौद्ध धर्म दर्शन पर आधारित था। उन्होंने कहा कि बौद्ध धर्म का अध्ययन व अध्यापन कार्य भारतवर्ष में कभी भी बंद नहीं  हुआ। यह निरंतर चलता रहा। प्रारंभ में यह मगध और आसपास के क्षेत्रों में प्रवर्तमान था, जो क्रमश: मध्य भारत एवं दक्षिण भारत की ओर स्थानांतरित होता चला गया। जहां तक लेखन का प्रश्न है तो इसमें थोड़ी कमी अवश्य रही। यह कमी भी पांचवीं शताब्दी के आते-आते पुन: खत्म हो गयी और लेखन कार्य प्रारंभ हो गया। बुद्ध वचनों एवं उनकी टीकाओं पर पुन: लेखन आरंभ हुआ। जो निर्बाध गति से चल रहा है।  इसका मतलब यह है कि बौद्ध दर्शन तथा अध्ययन का भारत में लोप कभी नहीं हुआ। लेखन कार्य में एक बड़ा अंतराल अवश्य दिखाई दिया है। इस अवधि में ये कार्य श्रीलंका के विहारों में होते रहे। जिसका विस्तार होकर अद्रउक कथाओं की टीकाओं के रूप में फिर से भारत पहुंचा।

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    पालि वाक्य रचना के सरल उपायों का कराया बोध

    दूसरे व्याख्यान में प्रोफेसर राम नक्षत्र प्रसाद ने पालि भाषा के प्रारंभिक व्याकरण एवं पालि वाक्य रचना के सरल उपायों का बोध कराया। उन्होंने कार्यशाला के प्रतिभागियों को इतिहास के मौलिक स्त्रोत के लिए पालि भाषा एवं साहित्य के महत्व एवं उसकी अपरिहार्यता को रेखांकित किया। जबकि सायं कालीन सत्र में काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो सी पी सिन्हा ने बिहार के पुरातात्विक अवशेषों का परिचय देते हुए अत्यंत प्राचीन धरोहरों को इतिहास के अध्ययन की ²ष्टि से महत्वपूर्ण बताया और इस बात पर बल दिया कि इन अवशेषों पर और अधिक शोध को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इससे पहले आईसीएचआर के अध्यक्ष प्रोफेसर अरविद पी जमखेडकर एवं पुणे विश्वविद्यालय के पालि विभागाध्यक्ष प्रोफेसर महेश देवकर ने अपना वक्तव्य दिया। इस सत्र की अध्यक्षता महाविहार के कुलपति प्रोफेसर बैद्यनाथ लाभ ने की।

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    कहीं तो रही होगी महाभारत की युद्ध भूमि, ढूंढने होंगे अवशेष

    प्रो जमखेडकर करने शोधार्थियों को संबोधित करते हुए कहा कि भारतीय इतिहास को ठीक से समझने के लिए रामायण एवं महाभारत के काल का अध्ययन भी करना होगा। इसके लिए समकालीन अन्य स्त्रोतों को समझना जरूरी है। पुरातात्विक स्त्रोत इसमें काफी सहायक सिद्ध हो सकते हैं। महाभारत के युद्ध में अनेक लोग मारे गए। कहीं तो वह युद्धभूमि होगी। जहां युद्ध के अवशेष मिलेंगे। प्रोफेसर महेश देवकर ने प्रतिभागियों से यह अपील की कि वे इतिहास के छात्र होने के नाते पालि साहित्य के रचनाकाल (प्रथम चरण ,द्वितीय चरण और तृतीय चरण) का पता करें। प्रथम दो चरणों में बुद्ध वचन एवं उसकी व्याख्या है। पालि भाषा केवल 10 वीं सदी तक बुद्ध वचन की भाषा थी। तीसरे चरण में कोश, काव्यशास्त्र, छंद शास्त्र, नीति शास्त्र आदि ग्रंथ मिलते हैं। प्रोफेसर देवकर ने विस्तार से श्रीलंका में विकसित पालि लेखन की परंपरा पर भी प्रकाश डाला। इस सत्र की अध्यक्षता कुलपति प्रोफेसर बैद्यनाथ लाभ ने की। कार्यशाला में प्रोफेसर राम नक्षत्र प्रसाद ने पालि व्याकरण पर आधारित कक्षा का भी संचालन किया।