Shashi Tharoor: कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा- राष्ट्रीय शिक्षा नीति देश हित में; रटने की परंपरा पर क्या बोले
नालंदा साहित्य महोत्सव में शशि थरूर ने भारतीय विश्वविद्यालयों की वैश्विक भूमिका पर बात की। उन्होंने कहा कि प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय विश्व का प्रमु ...और पढ़ें

दीप प्रज्ज्वलित करते सांसद शशि थरूर, कुलपति प्रो. सिद्धार्थ सिंह व अन्य। जागरण
संवाद सहयोगी, राजगीर (नालंदा)। Nalanda Literature Festival: अंतर्राष्ट्रीय कंवेंशन सेंटर में आयोजित पांच दिवसीय नालंदा साहित्य महोत्सव के दूसरे दिन सोमवार को नालंदा विवि के कुलपति प्रो. सचिन चतुर्वेदी द्वारा भारतीय विश्वविद्यालयों की वैश्विक भूमिका पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर में डॉ. शशि थरूर (Shashi Tharoor) ने भारत की समृद्ध शैक्षणिक विरासत और वर्तमान चुनौतियों पर विस्तार से विचार रखा।
उन्होंने प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय का उल्लेख करते हुए कहा कि यह कभी विश्व का सबसे प्रमुख विश्वविद्यालय था। एशिया के विभिन्न देशों से विद्यार्थी बिना किसी शुल्क के अध्ययन करते थे। डॉ. थरूर ने कहा कि नालंदा का पुनर्जीवन आज उसके मूल स्थल पर नहीं।
वर्तमान स्थिति पर बात करते हुए डॉ. थरूर ने स्पष्ट रूप से कहा कि आज भारत के विश्वविद्यालय विश्व के शीर्ष संस्थानों में शामिल नहीं हैं। हालांकि IIT और भारतीय विज्ञान संस्थान जैसे कुछ संस्थान हाल के वर्षों में वैश्विक रैंकिंग में शीर्ष 200 में आए हैं, लेकिन वे अभी भी शीर्ष स्तर से काफी पीछे हैं।
डॉ. थरूर ने यह भी कहा कि भारतीय विश्वविद्यालयों में विदेशी छात्रों की संख्या में भारी गिरावट आई है। पहले जहां अफ्रीका और अन्य क्षेत्रों के छात्र भारतीय परिसरों का अहम हिस्सा होते थे, आज अधिकांश अंतरराष्ट्रीय छात्र पश्चिमी देशों या रूस जाना पसंद करते हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति की सराहना
शिक्षा नीति पर बोलते हुए डॉ. थरूर ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति की सराहना की। उन्होंने कहा कि यह नीति किसी एक सरकार या पार्टी की नहीं, बल्कि पूरे देश के हित में बनी है, इसी कारण वे इसका समर्थन करते हैं।
उन्होंने शिक्षा और रोजगार बाजार के बीच की खाई पर भी चिंता जताई। डॉ. थरूर ने कहा कि विश्व के सफल मॉडल, जैसे सिलिकॉन वैली, यह दिखाते हैं कि विश्वविद्यालयों और उद्योगों के बीच मजबूत सहयोग कितना जरूरी है।
विभिन्न अध्ययनों का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि भारत के अधिकांश स्नातक रोजगार के लिए पूरी तरह तैयार नहीं होते और कंपनियों को उन्हें दोबारा प्रशिक्षण देना पड़ता है।
डॉ. थरूर ने शिक्षा पद्धति में बदलाव की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा कि भारत की शिक्षा व्यवस्था आज भी परीक्षा और रटने पर आधारित है, जिससे रचनात्मकता, संवाद और स्वतंत्र सोच को बढ़ावा नहीं मिलता। उन्होंने कहा कि 21वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण क्षमता यह नहीं है कि क्या सोचना है, बल्कि यह है कि कैसे सोचना है।
अपने वक्तव्य के अंत में डॉ. थरूर ने चेतावनी दी कि जो छात्र सवाल पूछने, बहस करने और स्वतंत्र रूप से सोचने से रोके जाते हैं, वे एआई और तेज़ी से बदलती दुनिया के लिए तैयार नहीं हो सकते। उन्होंने कहा कि शिक्षा सुधार में बुनियादी ढांचे और नीति के साथ-साथ सोच और शिक्षण पद्धति में बदलाव भी उतना ही जरूरी है।
अगले सत्र के दौरान शब्दों की सोशल फैक्ट्री विषय पर संचालक डॉ. अमित कुमार पांडे के साथ वक्ताओं में प्रो. लक्ष्मीधरे बेहेरा एवं डॉ. इलारिया तोरे व अदिति महेश्वरी ने अपने विचार रखे।
वहीं अमिताभ कांत व प्रो. सुनीना सिंह के बीच ‘इन्क्रेडिबल इंडिया’ जैसे राष्ट्रीय अभियानों से लेकर G20 के माध्यम से वैश्विक कूटनीति का नेतृत्व करने तक, भारत की विकास गाथा में उनका योगदान पर चर्चा हुई।
सिनेमा व साहित्य पर भी मंथन
जबकि द लॉस्ट लव सत्र में बिहार की क्षेत्रीय भाषाओं बज्जिका, मगही और अंगिका, के संरक्षण और पुनर्जीवन पर गहन चर्चा हुई। सत्र का संचालन प्रो. एम. जे. वारसी ने किया।
वक्ता के रूप में श्री उमेश प्रसाद उमेश और जय राम सिंह उपस्थित रहे। वहीं प्रख्यात फिल्मकार श्री अदूर गोपालकृष्णन और महोत्सव के निदेशक गंगा कुमार के बीच आयोजित इंटरएक्टिव सत्र में भाषा, साहित्य और सिनेमा के गहरे संबंधों पर चर्चा हुई।
शब्द से स्क्रीन सत्र का पंकज दुबे ने संचालित किया। जिसमें भारतीय सिनेमा में भाषा, बोली और साहित्य के स्क्रीन रूपांतरण पर केंद्रित रहा। जिसमें अभिनेता संजय मिश्रा ने कहा कि एक अभिनेता के लिए भाषा केवल संवाद बोलने का माध्यम नहीं, बल्कि भाव व्यक्त करने का अंतिम हथियार होती है।
वहीं अंग्रेजी में भारत को लिखना व इसकी बहुसांस्कृतिक कहानियों का जश्न मनाने विषय सत्र के संचालक डॉ. पंकज के.पी. श्रेयस्कर व आईपीएस अधिकारी एवं लेखक श्री अमित लोढ़ा सहित अन्य द्वारा भारतीय साहित्य की बहुसांस्कृतिक चेतना और अंग्रेज़ी भाषा की भूमिका पर गहन चर्चा हुई।
वहीं पद्म श्री डॉ सोनल मानसिंह द्वारा रचित पुस्तक ए जिगजैग माईंड यानि एक टेढ़ा-मेढ़ा दिमाग पर आधारित इस विशेष संवाद सत्र में डॉ. विक्रम सम्पत ने पुस्तक को आत्मकथा से आगे बढ़कर भारतीय संस्कृति, कला और जीवन-दर्शन का सजीव प्रतिबिंब बताया।

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