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    पितरों के ऋृण से मुक्ति का पर्व पितृपक्ष, ऋषि तर्पण के साथ हुआ शुभारंभ

    By Ajit KumarEdited By:
    Updated: Mon, 20 Sep 2021 11:45 AM (IST)

    पितरों की पूजा से जुड़े इस कर्म को पंचांगों में महालय भी कहा जाता है। महालय का शाब्दिक अर्थ होता है विशाल उत्सव। हमारे यहां पितृपक्ष को उत्सव के रुप में मनाए जाने की परंपरा रही है। इस उत्सव से जुड़ी कई परंपराएं सदियों से चली आ रही है।

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    सनातन धर्म में विशाल उत्सव के रूप में मनाया जाता पितृपक्ष। फाइल फोटो

    मधुबनी, जासं। सनातन धर्म में पितृ पक्ष का महत्व पौराणिक काल से चला आया है। भारतीय पंचांग के अनुसार आश्विन मास के प्रथम दिवस से अमावस्या तक पूरा कृष्णपक्ष पितृपक्ष के रुप में मनाया जाता है। यह पूरा पक्ष यानी कि पंद्रह दिन पितरों को समर्पित होता है। इसमें लोग अपने पितरों को प्रतिदिन जल अर्पण करते हैं। हालांकि, भादव मास के शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि को ऋषि तर्पण के साथ ही इसकी शुरूआत हो जाती है। अगले दिन से तर्पण के साथ पारवन शुरू हो जाता है। पितरों की पूजा से जुड़े इस कर्म को पंचांगों में महालय भी कहा जाता है। महालय का शाब्दिक अर्थ होता है विशाल उत्सव। हमारे यहां पितृपक्ष को उत्सव के रुप में मनाए जाने की परंपरा रही है। इस उत्सव से जुड़ी कई परंपराएं सदियों से चली आ रही है। इसी कड़ी में प्रत्येक वर्ष पितृपक्ष शुरु होने से पूर्व भादव शुक्ल पक्ष के प्रथम तिथि को कुशोत्पाटन के रुप में मनाया जाता है। इस दिन लोग कुश उखाड़ते हैं और उसी कुश से पितृपक्ष के दौरान पितरों को जल अर्पण किया जाता है। इस कर्मकांड में कुश का सबसे अधिक महत्व माना गया है।

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    क्या है विधान

    पितृपक्ष में प्रत्येक दिन लोग नदी या तालाब में स्नान कर भींगे देह देवता, ऋषि और पितरों को हाथ में कुश धारण कर जल अर्पण करते हैं। देवता को पूरब दिशा, ऋषि को उत्तर दिशा और पितरों को दक्षिण दिशा में जल अर्पण किया जाता है। इसके साथ ही जिस तिथि को पितर की मृत्यु हुई हो, उस तिथि को पारवन कर पितरों को पिंडदान किया जाता है।

    पितृपक्ष का पौराणिक महत्व

    पितरों को पिंडदान के लिए किए जाने वाले पारवन के महत्व की चर्चा वेद, पुराण, स्मृति आदि पौराणिक ग्रंथों में भरी पड़ी है। इनके अनुसार पितरों की तृप्ति के लिए पारवन किया जाता है। मार्कण्डेय पुराण में वर्णित कथा के अनुसार सतयुग में रुचि नामक एक ब्राह्मण थे जो अनुचान ब्रह्मचारी थे, अर्थात बिना विवाह के वेद का प्रवचन करने वाले। अपने वृद्धावस्था में एक दिन रुचि नदी में स्नान करने गए तो उन्होंने नदी तट पर एक शिखा पर टिके पीपल के पेड़ पर कुछ प्रेतात्माओं को उल्टा लटका हुआ देखा। नदी का वेग काफी अधिक था और ऐसे में दो मूसक उस शिखा को कुतर रहे थे जिनमें एक काला था और दूसरा गोरा। रुचि को उन आत्माओं पर दया आ गई तो उन्होनें उन आत्माओं से उनके दु:ख का कारण पूछा। तब उन आत्माओं ने उन्हें बताया कि वे रुचि के पितर हैं और वे दोनों मूसक दिन व रात रुपी काल हैं। उन्होनें बताया कि रुचि ने विवाह नहीं किया जिससे उनके वंश की संतति आगे नहीं बढ़ सकी। रुचि की मृत्यु होते ही वे सभी अधोगामी हो जाऐंगे, अर्थात उन्हें कभी मुक्ति नहीं मिल पाएगी। उनकी व्यथा सुनकर रुचि ने उन्हें अपना परिचय दिया और कहा कि अब उनका विवाह कैसे हो सकता है, क्योंकि वे वृद्ध हो चुके हैं। तब उनके पितरों ने उन्हें आशीर्वाद दिया और रुचि को घोर तपस्या के उपरांत पुन: यौवन की प्राप्ति हुई और सुंदर नवयौवना के साथ उनका विवाह हुआ, जिससे उनकी संतति आगे बढ़ी। विवाहोपरांत रुचि ने पारवन कर पितरों को पिंडदान किया और उनकी पूजा की। इससे उनके पितरों को तृप्ति हुई।

    मिथिला से शुरु हुआ यह कर्मकांड

    पितृकर्म संबंधी कर्मकांड की शुरुआत मिथिला से मानी जाती है। मिथिला के राजा मिथि को इसका प्रथम प्रवर्तक माना जाता है। किवदंतियों के अनुसार मिथिला के प्रथम राजा निमी को गुरु वशिष्ट ने श्राप दिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के उपरांत उनके पार्थिव शरीर का मंथन किया गया, जिससे मिथि की उत्पत्ति हुई। मिथि के नाम पर ही राज्य का नाम मिथिला पड़ा। मिथि ने एकबार अपने पिता को प्रिय लगने वाली वस्तुओं को दान किया। गुरु वशिष्ट ने इसे ईश्वरीय प्रेरणा बताया और यहीं से पितर संबंधी श्राद्ध कर्म की शुरुआत मानी जाती है।

    गया में पिंडदान का महत्व

    पितृपक्ष में गया में फल्गु नदी के तट पर पिंडदान को पितरों के लिए सर्वोत्तम माना गया है। गया में पिंडदान को पुत्र दायित्वों की पूर्ति माना गया है। कथाओं के अनुसार सतयुग में गयासुर की तपस्या से प्रसन्न भगवान विष्णु ने यह वरदान दिया कि इस क्षेत्र में पितृपक्ष में जो भी पितरों को पिंडदान करेगा, उनके पितरों को जन्म-मृत्यु के चक्र से सदा के लिए मुक्ति मिल जाएगी। तब से गया में पितरों को पिंडदान की परंपरा चल रही है। कहा जाता है कि त्रेतायुग में भगवान राम और द्वापर युग में भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम ने भी गया में आकर पिंडदान किया था।

    भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग पितृपक्ष

    कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के वेद विभागाध्यक्ष डॉ. विद्येश्वर झा के अनुसार पितृ पूजा को समर्पित पितृपक्ष भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। जब-जब भगवान मानव रुप में आए हैं, तब-तब इस संस्कृति का संरक्षण करने के लिए मानव रुप में इसका निर्वहन करते हैं। मिथिला से उत्पन्न कर्मकांडीय संस्कृति का संपूर्ण विश्व में सनातन धर्म को मानने वाले आस्था के साथ निर्वहन करते हैं। इसका प्रमाण है कि पितृपक्ष के दौरान देश-विदेश से लोग पिंडदान करने गया पहुंचते हैं।