लीची को कर रहे बदनाम, नहीं है एईएस से कोई संबंध Muzaffarpur News
लीची उत्पादक किसानों ने लीची का एईएस से संबंधों को नकारा। बच्चों का इलाज करनेवाले चिकित्सकों ने कहा लीची से इस बीमारी का कोई लेना-देना नहीं।
मुजफ्फरपुर, जेएनएन। लीची मुजफ्फरपुर की पहचान है। यहां इसका इतिहास लगभग दो सौ साल पुराना है। पिछले 16-17 सालों से एईएस सामने आ रहा है। ऐसे में एईएस का लीची कनेक्शन हो, यह किसी के गले नहीं उतर रहा है।
शिशु रोग विशेषज्ञ व एसकेएमसीएच के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. जेपी मंडल कहते हैं कि लीची से इस बीमारी का कोई संबंध नहीं है। यह बीमारी लीची में फल आने से दो-तीन माह पहले व फसल समाप्त होने के दो माह तक सामने आती है। ऐसे में लीची को दोष देना कहां तक उचित है। इसके वायरल डिजीज होने की आशंका है। हो सकता है कि लीची या इसके आसपास के बगीचों में किसी खास समय इसके वायरस पनपते हों।
अभी तक इसकी पहचान नहीं की गई है। दूसरे जिले में भी तो लीची के बगीचे हैं और वहां भी तापमान इतना ही रहता है। ऐसे में इसे दावा के साथ नहीं कहा जा सकता है। यह बीमारी एईएस ही है। यह हाइपोग्लेसेनिया से नहीं होता है। केजरीवाल के प्रसिद्ध शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. चैतन्य कुमार कहते है कि आक्रांत बच्चों की केस हिस्ट्री में किसी ने भी लीची खाने की बात नहीं बताई। इससे यह कहना कि लीची से यह बीमारी होती है यह पूरी तरह गलत है।
मैंगो लॉबी की साजिश
उद्यान रत्न व जिले के प्रमुख लीची उत्पादक किसान भोलानाथ झा आरोप लगाते हैं कि सब मैंगो (आम) लॉबी की साजिश है। दूसरे प्रदेशों के बाजार में आम 10 से 15 रुपये किलो बिकता है। वहीं, लीची 200 से 250 रुपये किलो। इसके जूस दुनिया भर में बिकते हैं। कहीं से कोई शिकायत नहीं आई। लीची की खेती व व्यवसाय को हतोत्साहित करने के लिए एक साजिश के तहत भ्रामक प्रचार किया जा रहा है। देहाती क्षेत्र से ज्यादा शहरी क्षेत्र के लोग लीची खाते हैं, लेकिन बीमार में सब के सब देहाती क्षेत्र के हैं। वे कहते हैं कि लीची चीन, थाइलैंड व अमेरिका सहित कई अन्य देशों में उत्पादित होता है। अगर इससे एईएस होता तो वहां भी यह बीमारी सामने आती। मुजफ्फरपुर की लीची देश के विभिन्न भागों में बेची जाती है।
वहां खाने वाले बच्चे भी तो बीमार होते। लीची अनुसंधान केंद्र की जांच में भी इस बीमारी का कोई प्रमाण नहीं मिला है। लीची की तोड़ाई व पैकेजिंग में महिला मजदूर ही ज्यादा होती है। साथ में उनके बच्चे भी होते हैं। ये बच्चे दिन भर लीची के बगीचे में रहते हैं और फल खाते हैं। कभी कोई बच्चा बीमार नहीं हुआ। कृषि विभाग के डाइरेक्टर जनरल स्वास्थ्य ने भी अमेरिकी वैज्ञानिक से प्रमाण नहीं मिलने पर उनकी रिपोर्ट खारिज कर दी थी। जब लीची की बात हो रही है तो अब जांच के लिए जो टीम सरकार बना रही है उसमें लीची अनुसंधान केंद्र के निदेशक को भी शामिल करें। जिला किसान भूषण व लीची के प्रमुख उत्पादक सतीश द्विवेदी कहते हैं कि लीची से एईएस हो सकता है यह समझ से परे है। उनके बगीचे की लीची तो हर कोई खाता है, लेकिन आज तक कोई बीमार नहीं हुआ।
लीची अनुसंधान केंद्र की जांच में भी सही पाई गई लीची
राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. विशालनाथ कहते हैं कि जांच में लीची पूरी तरह सही निकली। इसमें बीमारी का कोई तत्व नहीं मिला है। यहां की लीची काफी बेहतर व स्वास्थ्यवद्र्धक है। इसे बदनाम नहीं किया जाना चाहिए।
जनवरी में हुआ था पहला बच्चा आक्रांत
एसकेएमसीएच का रिकॉर्ड भी लीची से इस बीमारी के संबंधों को नकार रहा है। इस साल एईएस से पहला आक्रांत कटरा के दरगाह गांव का गुड्डू कुमार (12) को 25 जनवरी को एसकेएमसीएच में लाया गया था। इसके बाद पांच मार्च को सीतामढ़ी का मेहराज (16), 17 अप्रैल को शिवहर का अब्दाल हलाल (4), 22 अप्रैल को औराई का बिरजू कुमार (3.6) व 27 अप्रैल को सीतामढ़ी की निक्की कुमारी (2.6) को यहां लाई गई थी। जबकि, लीची का फल 20 मई के बाद पकता है। जनवरी में तो इसमें मंजर भी नहीं आता है।
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