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    Sitamarhi: चैता और फाग गीतों की धुन पर अब ढोल मंजीरे की थाप नहीं सुनाई देती

    By Dharmendra Kumar SinghEdited By:
    Updated: Tue, 23 Mar 2021 03:53 PM (IST)

    Sitamarhi गांवों के सार्वजनिक स्थलों पर होली के पूर्व से ही होने वाली गीत गवनई और ढोल मंजीरे की थाप नहीं सुनाई देती। होली के परंपरागत गीतों की जगह भोजपुरी के अश्लील व फूहड़ गीतों ने ले लिया है। जिससे गांवों में स्थापित मूल्य व परंपराएं क्षींण होने लगी है।

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    परंपरागत गीतों की जगह अश्लील व फूहड़ गीतों ने ले लिया है। प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

    सीतामढ़ी, जासं। ‘होली खेलें रघुबीरा अवध में...’, ‘आज बिरज में होली रे रसिया ...’ सुरसंड के बाबा वाल्मीकेश्वर नाथ धाम में होली खेले नंदलाला... जैसे चैता और फाग गीतों की धुनें अब बीते दिनों की बात होती जा रही हैं। गांवों के सार्वजनिक स्थलों पर होली के पूर्व से ही होने वाली गीत गवनई और ढोल मंजीरे की थाप नहीं सुनाई देती। अब होली के परंपरागत गीतों की जगह भोजपुरी के अश्लील व फूहड़ गीतों ने ले लिया है। जिससे गांवों में स्थापित मूल्य व परंपराएं क्षींण होने लगी है। हालांकि, गांव के बड़े बुजुर्ग लोक कलाओं को जीवंत बनाए रखने की आवश्यकता महसूस कर रह हैं। उनकी माने तो परंपराओं को बनाए रखने से ही आपसी सौहार्द व भाईचारा कायम रह सकता है।

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    हमारे देश के त्योहार, व्रत तथा परंपराएं यहां के जीवंत सभ्यता और संस्कृति का दर्पण हैं। देश की अनेकता में एकता प्रदर्शित होने के पीछे हमारी समृद्ध परंपराओं और पर्वों का रहस्य छिपा है। बुजुर्गों की मानें तो गांवों में इन परंपराओं को लोग भली भांति निभाते थे। बसंत पंचमी से ही गांवों में फागुनी गीतों की बयार बहने लगती थी। फागुन के गीतों क्रमश: राग, मल्हार, फगुआ, झूमर, चौताल, तितला, चैता और बारहमासा आदि के माध्यम से भारतीय लोक संस्कृति की छाप बहुतायत देखने को मिलती थी। गांवों में एक साथ बैठकर फाग गीतों के गाने से लोगों के बीच आपसी प्रेम और सौहार्द कायम रहता था। लेकिन लोक कलाओं के विलुप्त होने से समाज में आपसी वैमनस्यता बढ़ गई है।

    सुरसंड गांव के आराध्य हर्षवर्धन का कहना है कि पुराने जमाने में लोक कलाओं के प्रचार प्रसार से सामाजिक समरसता की भावना विकसित होती थी। अब समाज में पुरानी परंपराओं को जीवंत बनाया जाना चाहिए। इसी क्रम में नगर पंचायत के अध्यक्ष ओमप्रकाश झा राजू, पूर्व उपाध्यक्ष सह वार्ड पार्षद कुंदन कुमार  का कहना है कि लुप्त हो रही पुरातन प्रथाओं की वजह से गांवों में वैमनस्यता बढ़ी है। वर्तमान में समय की मांग है कि लुप्त हो रही गंवई लोक कलाओं को बढ़ावा दिया जाए। ग्रामीणों को सक्रिय किया जाए। इसी तरह बनॉली  गांव के कोदई राउत का कहना है कि गांव स्तर पर योग और व्यायाम की नियमित अभ्यास कक्षाएं लगाई जानी चाहिए। इससे लोगों में तनाव कम होगा। वहीं आपसी सौहार्द और प्रेम की भावना का विकास होगा। हरारी दुलारपुर के पूर्व पंचायत समिति सदस्य का कहना है कि पुरानी परंपराओं को बनाए रखने से ही समाज में आपसी सौहार्द कायम रह सकता है। उन्होंने गांव गांव में कीर्तन मंडली के गठन की आवश्यकता जताई। इसी वार्ड पार्षद प्रतिनिधि समाजसेवी धर्मेंद्र राउत ,नीलू राउत का कहना है कि लोक कलाओं को बढ़ावा देने के लिए पंचायतों के तरफ से नि:शुल्क संगीत प्रशिक्षण कार्यशालाएं आयोजित की जानी चाहिए।

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