राजनेताओं की उदासीनता से नहीं हो सका रामायण, महाभारत व बौद्ध सर्किट का विकास
रामायण से जुड़े कई स्थल है मौजूद। अंधराठाढ़ी सहित अन्य भागों में बौद्धकालीन महाविहार के स्थल आज भी मौजूद। गांडिवेश्वर व वनाटपुर में महाभारत काली अवशेष।
मधुबनी [सुनील कुमार मिश्र]। मधुबनी धरोहरों की धरती है। यहा धरती पर महाभारत, रामायण व बौद्ध काल से संबंधित अनेक जगह हैं जिसे यदि विभिन्न सर्किटों से जोड़ दिया जाय तो यहां पर्यटन की संभावनाएं बढ़ सकती है। विदेशी मुद्रा कमाने का यह सशक्त माध्यम बन सकता है। लेकिन आजादी के बाद इस पर राजनेताओं ने ध्यान नहीं दिया। जिस कारण कई स्थल के नष्ट हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। उपरोक्त कालों के कई स्थल है जिसका विकास नहीं हेा सका है। हां घोषणाएं जरूर हुई है। सरकारी स्तर पर अभी तक इन स्थलों की सही जानकारी जानने के लिए कोई प्रयास नहीं हेा सका है। पेश है रिपोर्ट ।
मधुबनी जिला के पश्चिमी उत्तरी क्षेत्र रामायण व महाभारतकालीन पौराणिक स्थल से भरा पड़ा है। बेनीपट्टी प्रखंड के शिवनगर में पांडव के अज्ञातवास के समय गांडीवेश्वर स्थान में अर्जूुन के गांडीव छुपाने व इसी के आसपास विराटपुर अब अपभ्रंस से बनाटपुर गांव है। जहां के राजा के दरबार में पांडव दूसरे नाम से छिपे हुए थे। शिवनगर से थोड़ी दूर मधवापुर में वाणगंगा नाम सरोवर है। जिसके बारे में कहा जाता है कि अर्जून ने अपने वाण से सरोवर का निर्माण किया था। इससे कुछ दूर बनाटपुर में राजा विराट की राजधानी थी।
जहां आज एक ऊंचे टीले पर विशाल शिवलिंग स्थापित है। जो खंडहर का रूप में आज भी मौजूद है। आसपास के समीप के गांवों में कई दुर्लभ शिवङ्क्षलग आज पेड़ के नीचे दिख जाएंगे। यदि इसे सही तरह से शोध किया जाय तो महाभारतकालीन महत्वपूर्ण पन्ने उजागर हो सकता है। इसे महाभारतकालीन सर्किट से जोड़ कर पर्यटक स्थल का विकास किया जा सकता है।
इसी प्रकार यहां रामयणकालीन पौराणिक जगह भी है। जो दरभंगा-मधुबनी जिला के सीमा पर स्थित कमतौल के अहिल्यास्थान से चलकर हरलाखी के कमतौल मनोकामना शिवमंदिर,राज जनक की फुलवारी फुलहर, विश्वामित्र आश्रम विशौल, कल्याणेश्वर स्थान आदि जगह आज भी मौजूद है। जिसका जिक्र पुराणों में मिलता है। फुलहर में माता गिरजा विराज रहीं है। जहां माता सीता प्रतिदिन फूल तोडऩे आती थी।
रामचरित मानस में भी इस स्थल का विशद वर्णन है। यह भी कि नेपाल के जनकपुर से फाल्गुन में 15 दिवसीय मिथिला परिक्रमा का आयोजन होता है। जो राजा जनक से जुड़े कल्याणेश्वर स्थान से चलती है और जनकपुर में जाकर समाप्त होती है। इसका भी अभी तक विकास नहीं किया गया है। रामायण सर्किट से इसे जोड़ देने से भी धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा और ढेर सारी विदेशी मुद्रा की प्राप्ति भी।
इसी तरह मिथिला का इस क्षेत्र पर बौद्धों का भी प्रभाव रहा। जिसका जीता जागता उदाहरण अंधराठाढ़ी का पस्टन गांव में स्थित मुसहरनियां डीह है।इस गांव में बौद्ध महाविहार होने के साक्ष्य अब भी मौजूद हैं। दो बडे बडे टीले के अलावा चार छोटे छोटे टीलों का अस्तित्व बचा हुआ है। आज भी यहां हल और कुदाल चलाते समय इसके इर्द गिर्द बुद्ध आदि की छोटी छोटी मूर्तियां और उस समय के प्राचीन मिट्टीके बर्तन आदि मिलते रहते हैं। सुरक्षा और रखरखाव नहीं होने के कारण भग्नावशेष लुप्त होने के कगार पर है।
ऐसा प्रमाण है कि चीन और तिब्बत के यात्री यहां विश्राम करते थे - प्रसिद्ध विद्वानऔर पुरातात्वविद भैरब लाल दास के अनुसार आज से लगभग 1200 वर्ष पहले मिथिला के पालवंशी राजाओं ने यहां बुद्ध स्तूप का निर्माण करवाया था। इस बुद्ध स्तूप का स्वरूप भी राजगीर वैशाली या केसरिया आदि जगहों जैसा ही है।सबसे पहले भारत सरकार के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के तत्कालीन बिहार सर्किल के हेड डॉ. पीके झा ने इस स्थान का सर्वेक्षण किया था। उन्होंने कभी यहां विशाल और उन्नत बौद्ध महाविहार रहने की बात कही।
कहते है कि चीन और तिब्बत से आने वाले और भारत से तिब्बत एवं चीन जाने वाले यात्रियो का पडाव इसी बौद्ध बिहार में होता था। पस्टन का भौगोलिक स्थिति और आसपास के गांव आदि इसी पट्टन गांव से मिलता जुलता है। उस बौद्ध साहित्य में वर्णित इसगांव से जनकपुर की दूरी हू ब हू मिलती है। सामाजिक रीति रिवाज, खान पान आदि भी इस वर्णितपट्टन गांव से मेल खाता है।
विद्वानों और इतिहासकारों का मानना है कि ही पट्टन ही कालान्तरमें अपभ्रंशित होकर पस्टन हो गया। सेवानिवृत डीएसपी इन्द्र नारायण झा ने मिथिला दिगदर्शन में भी पस्टन मुसहरनिया डीह को बौद्ध मठ ही माना है। क्षेत्रके प्रसिद्ध पुरातत्वविद स्व.पंडित सहदेव झा पस्टन मुसहरनिया डीह को बौद्ध भिक्षुओ के रुकने की जगह ही मानते थे। उनके अनुसार देश विदेश से बौद्ध धर्म के लोग यहां अध्ययन करने आते थे। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के लक्ष्मीश्वर ङ्क्षसह संग्रहालयके क्यूरेटर डॉ. शिवकुमार मिश्र के अनुसार पूर्व में यह महाविहार था।
इसके कम से कमनौ पिलर अभी भी सुरक्षित हैं। अंधरा ठाढ़ीमें बुद्ध भगवती तारा की प्रतिमा पर खुदा हुआ श्लोक था प्रवर्तनपुर सुधाविहार। यही प्रवर्तनपुर कालांतर में पस्टन के नाम से प्रसिद्ध हो गया। भैरव लाल दास के अनुसार इस बुद्ध स्तूप कास्वरूप भी राजगीर, वैशाली या केसरिया आदि जगहों जैसा ही है।
दुर्भाग्य है कि पस्टन में ऐसा कुछ नहीं हुआ। तत्कालीन राज्य मंत्री स्व. रामफल चौधरी नेअपने समय में मुसहनिया डीह और कमलादित्य स्थान की खुदाई की योजना स्वीकृत करवाई थी। कमोवेश कहीं कहीं खुदाई भी हुई किन्तु पुरी तरहइसका उत्खनन नहीं हो सका। पं महेश झा कहते हैं कि अगर सरकार और स्थानीय प्रशासन इसपरध्यान दे और इसकी खुदाई करवाए तो ये भी राजगीर, वैशाली और केशरिया की तरह प्रसिद्ध और दर्शनीय हो सकता है।