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    मिक्सी के दौर में घरों से गायब हो गया सिलवट व लोढ़ा, बनाने वाले दर्जनभर कारीगरों के आजीविका पर संकट

    By Murari KumarEdited By:
    Updated: Mon, 11 Jan 2021 01:39 PM (IST)

    पश्चिम चंपारण में सिलवट बनाने वाले दर्जनभर परिवारों के आजीविका पर संकट। बेतिया के चेकपोस्ट पर आज भी पुश्तैनी कारोबार में लगे दर्जनभर हुनरमंद कारीगर। घ ...और पढ़ें

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    बेतिया के चेकपोस्ट पर आज भी पुश्तैनी कारोबार में लगे दर्जनभर हुनरमंद कारीगर

    पश्चिम चंपारण, जागरण संवाददाता। एक दौर था जब घर-घर में सिलवट होती थी। घर की महिलाएं इस पर मसाला, चटनी और अन्य खाद्य पदार्थ पीसती थीं। मिक्सी के दौर में घरों से यह गुम तो हो गई, लेकिन इसे बनाने वाले हुनरमंद कारीगर आज भी बेतिया में हैं। शहर के चेकपोस्ट पर इस पुश्तैनी काम में लगे लोग तन्मयता से इसे बनाते हैं। पत्थर पर छेनी-हथौड़ी चलती है तो मनमोहक ध्वनि निकलती है। लेकिन पुश्तैनी कारोबार अब घाटे का सौदा बन गया है।

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    तेजी से बढ़ते आधुनिकता व विलासिता के इस दौर में परंपरागत घरेलू यंत्र विलुप्ति के कगार पर हैं। दैनिक उपयोग में आने वाले घरेलू परंपरागत यंत्रों में शुमार सिलवट का आवाज अब घरों में सुनाई नहीं पड़ती। एक समय यह घर-घर में उपलब्ध होता था एवं लोग मसाला पीसने के लिए जहां  सिलवट व लोढ़ा का उपयोग करते थे वहीं आज इनकी जगह मिक्सर ने ले ली है। आराम व कम लागत की जद्दोजहद में परंपरागत यंत्र लोगों से दूर होते चले गए। समय बदल रहा है लेकिन वक्त के साथ बदल रही चीजों का जिक्र लोग बहुत कम करते है। जीवन में कई ऐसी चीजें हैं जो अब धीरे-धीरे लुप्त होती जारही हैं। अब कम ही कारीगर वैसे बचे है जो उन वस्तुओं को बनाते और बेचते थे।

     आधुनिक युग में वो चीजें अब नए स्वरुप में बिकने लगी है। कुछ दिनों के बाद ये भी किस्से कहानियों का हिस्सा बन कर रह जाएंगी। जिन पेशों के सहारे लोग कभी रोज़ी रोटी चलाया करते थे, अब न उनके खरीददार बचे हैं और न पहले जैसे कारीगर। बाजार के अपने तौर तरीके हैं, यहां वहीं बच रहा है जो बदली हुई जरूरतों के हिसाब से खुद को ढाल रहा है लेकिन इस बदलाव में लोग पर्यावरण को भूलते जा रहे हैं। हर किसी की नजरों से अंजान आज भी कुछ लोग यहाँ पत्थर से रोजी रोटी कमाकर अपने परिवार का पालन पोषण कर रहे हैं।

     इस कार्य में लगे महेश व योगेन्द्र ने बताया कि एक दिन में वे महज एक से दो सेट ही सिलवट व लोढ़ा बना पाते हैं। यह काम देखने में सरल लगता है लेकिन है नहीं। बड़े ही बारीकी से पत्थर को तोड़ा जाता है। दिन भर छेनी व हथौड़ा चला कर महज पचास से एक सौ रूपये कमाई हो जाती है। इन गरीब परिवारों को अब तक शिल्प से जुड़े होने के बावजूद कोई सहायता नहीं मिल पायी है। ऐसे में लोग धीरे-धीरे पुश्तैनी धंधे से किनारा करने लगे हैं। जबकि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में सिलवट व लोढ़ा का प्रयोग  होता है। पर इसके बनाने वाले को कोई पहचान नही मिल पायी है।

    नहीं होता भरण-पोषण

    बेतिया चेक-पोस्ट पर सिलवट-लोढ़ा बनाने वाले कारीगरों ने बताया कि मांग कम हो रही है। धीरे-धीरे पुश्तैनी धंधा बंद होता चला जा रहा है। सही मजदूरी न मिलने के कारण इसका काम करने वालों ने इससे किनारा करते जा रहा है। खर्च न निकल पाने के कारण इसका कारोबार करने वालों ने दूसरा काम भी शुरू कर दिया है । शासन प्रशासन द्वारा भी इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए कोई सहूलियत नहीं दी गई

    बीमारी से ग्रसित हो रहे हैं लोग

    घरों में दैनिक उपयोग में आने वाले परंपरागत घरेलू यंत्र का उपयोग बंद होने से लोगों को सुविधा तो जरूर मिल रही है। परंतु उससे लोग कई तरह की बीमारियों से भी ग्रसित होने लगे हैं। वहीं पहले लोग मसाला आदि चीज जो घरों में पीस कर खाते थे, वह अब विभिन्न कंपनी द्वारा तैयार रेडीमेड मसाला का उपयोग होता है। इसमें मिलावट के कारण कई तरह की बीमारियां होने की संभावना रहती है। चिकित्सक डा. कमरुजमां का भी कहना है कि हर मामले में परम्परागत चीजों का त्याग करना हितकर नहीं है। सिल्वट पर मशाला पीसना एक तरह से व्यायाम था। चुकि अधिकांशत: सुबह व शाम में ही इसका इस्तेमाल होता था इसलिए यह और सही था। इससे रीढ़ संबंधी परेशानी कम होती थी।