Bihar Politics: इस जिले में सीएम नीतीश कुमार की पार्टी का कभी था दबदबा, अब एक सीट के लिए तरस रहा जदयू
वर्ष 2000 में नीतीश कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने लेकिन बहुमत न होने से सरकार गिर गई। 2005 में एनडीए को बहुमत मिला जिसमें मुजफ्फरपुर का योगदान था। 2015 में महागठबंधन में जदयू को एक भी सीट नहीं मिली। 2020 में जदयू ने सिर्फ एक सीट जीती। कमजोर नेतृत्व और आंतरिक कलह के कारण जदयू की ताकत कम हो रही है पार्टी को इस वर्ष बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है।

प्रेम शंकर मिश्रा, मुजफ्फरपुर। Bihar Election 2025: झारखंड के अलग होने से पहले वर्ष 2000 का बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Vidhan sabha Chunav) महत्वपूर्ण था। तब राजद (RJD) की सरकार को हटाकर नीतीश कुमार (Nitish Kumar) पहली बार मुख्यमंत्री बने थे।
नहीं बन सकी थी सरकार
अविभाजित बिहार की 324 सीटों के लिए आवश्यक बहुमत नहीं होने पर 151 सीट वाली एनडीए (NDA) की सरकार सात दिनों में ही गिर गई। राबड़ी देवी (Rabri Devi) फिर से बिहार की मुख्यमंत्री बनीं। इसी वर्ष नवंबर में बिहार से झारखंड अलग हो गया।
किसी की सरकार नहीं बनी
फरवरी, 2005 में बंटवारे के बाद बिहार में पहला चुनाव हुआ, मगर जनता ने ऐसा जनादेश दिया कि किसी की सरकार नहीं बनी। 29 सीट लेकर सत्ता की चाबी लोजपा के तत्कालीन अध्यक्ष रामविलास पासवान अपने पास रखे रह गए, कोई सरकार नहीं बनीं।
एनडीए को स्पष्ट बहुमत
अब देश की नजर अक्टूबर 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव पर थी। केंद्र में वर्ष 2004 में एनडीए से कांग्रेस के नेतृत्व में सत्ता परिवर्तन के बाद यूपीए की सरकार आ गई थी, इससे कई कयास लगाए जा रहे थे, मगर बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे ने एनडीए को स्पष्ट बहुमत देकर जनता ने सभी अटकलों पर विराम लगा दिया।
मुजफ्फरपुर का भी बड़ा योगदान
एनडीए की पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो मुजफ्फरपुर का भी बड़ा योगदान रहा। जिले की 11 विधानसभा सीटों में आठ इस गठबंधन को मिले थे, जबकि एक इसके समर्थित उम्मीदवार (मुजफ्फरपुर से निर्दल बिजेंद्र चौधरी) को।
जदयू ड्राइविंग सीट पर
पांच साल बाद 2010 में हुए चुनाव में जिले में एनडीए यह आंकड़ा बढ़कर 10 हो गया। इन चुनावों में जदयू ही ड्राइविंग सीट पर रहा। दोनों चुनावों में इस पार्टी के सात-सात विधायक बने, मगर इस चुनाव के बाद जिले में जदयू की ताकत कम होती चली गई।
2015 में एक भी सीट नहीं
2015 में जदयू एनडीए से अलग होकर महागठबंधन के साथ चला गया। बिहार में महागठबंधन को प्रचंड बहुमत तो मिला, मगर मुजफ्फरपुर में जदयू को एक भी सीट नहीं मिली। वर्ष 2005 में जिले की 11 में से नौ सीटों पर लड़ने वाले जदयू को राजद ने महज तीन सीटें दीं।
कई बड़े नेता हार गए
इन तीनों सीटों पर जदयू को पराजय झेलनी पड़ी। यहां तक कि सर्वाधिक बार चुनाव जीतने वाले रमई राम जैसे कद्दावर नेता को हार का सामना करना पड़ा। वहीं गठबंधन का फायदा राजद को मिला। पिछले दो चुनाव में क्रमश: दो और एक सीट वाले राजद को छह सीटें मिल गईं।
चार में से सिर्फ एक सीट
वर्ष 2020 में जदयू फिर से एनडीए के साथ मैदान में उतरा, मगर पुरानी वाली स्ट्राइक रेट तक नहीं पहुंच पाया। चार में से सिर्फ एक सकरा की सुरक्षित सीट पर जीत मिली। वह भी महज 15 सौ वोटों के अंतर से।
दो चुनाव में खराब प्रदर्शन
माना जा रहा था कि अगर यहां से कांग्रेस की जगह राजद का उम्मीदवार होता तो जदयू को यह सीट भी नहीं मिलती। पिछले दो चुनाव में खराब प्रदर्शन करने वाले जदयू को इस बार अपनी पुरानी जमीन पाना चुनौती से कम नहीं है। यह इसलिए कि अब उसे जिले की सात सीट चुनाव लड़ने के लिए भी मिलना कठिन है।
कई कारक जिम्मेदार
जिले में जदयू की कमजोर होती ताकत को लेकर विश्लेषक दल के स्थानीय नेतृत्व, गठबंधन धर्म और उम्मीदवारों के चयन को भी कारण मानते हैं। दल के एक नेता की मानें तो कांटी सीट जदयू के लिए महत्वपूर्ण थी।
उम्मीदवार चयन पर भी सवाल
यहां से लगातार दो बार विजयी होने के बावजूद वर्ष 2015 के चुनाव में जदयू ने सीट राजद को दे दी। राजद उम्मीदवार परवेज आलम तीसरे नंबर पर रहे और जदयू का दबदबा भी खत्म हो गया। पिछले चुनाव में जदयू को सीट तो मिली, मगर अजीत कुमार की जगह मो. जमाल उम्मीदवार बनाए गए।
चयन में चूक
वह भी तीसरे नंबर पर ही रहे। दोनों चुनाव में अजीत कुमार दूसरे नंबर पर रहे। यहां विश्लेषक उम्मीदवारों के चयन में चूक को कारण मान रहे। कुढ़नी विधानसभा के उपचुनाव में भी कुछ यही कारण रहा। आम चुनाव में राजद की जीती हुई सीट को उपचुनाव में महागबंधन के साथ रहते हुए भी जदयू ने खो दिया।
आपसी कलह भी जिम्मेदार
समीकरण मजबूत होते हुए भी यहां हार का कारण पूर्व मंत्री मनोज कुशवाहा की उम्मीदवारी को माना गया। वहीं स्थानीय नेताओं के आपसी कलह को भी पार्टी की ताकत कमजोर होने को कारण माना जा रहा है। कुछ नेताओं ने पिछले दिनों जिलाध्यक्ष रामबाबू सिंह कुशवाहा का खुलकर विरोध किया था।
अहमियत नहीं देने की शिकायत
इसमें समता पार्टी के समय से दल से जुड़े नेताओं को अहमियत नहीं देने की शिकायत रही। वर्ष 2020 में एनडीए के खिलाफ रालोसपा से मैदान में उतरे रामबाबू सिंह कुशवाहा को स्थानीय नेतृत्व दिए जाने की उनकी नाराजगी थी। परिवर्तन को लेकर पटना तक मामला गया, मगर बदलाव नहीं हुआ।
पूर्व जिलाध्यक्ष ने छोड़ा साथ
इसी कड़ी में पूर्व जिलाध्यक्ष रंजीत सहनी ने पिछले दिनों पार्टी छोड़ वीआइपी का दामन थाम लिया। यह नाराजगी भी कहीं ना कहीं चुनाव पर असर डालती है। पिछले विधानसभा में तीन सीटों पर जदयू उम्मीदवार की हार के कारण में लोजपा फैक्टर को माना गया।
जिलाध्यक्ष ने कहा, बड़ा दिल दिखाया
मगर 2015 में एक भी सीट नहीं मिल पाने का कारण अंतर्कलह और उम्मीदवारी में चूक भी रही। जदयू के जिलाध्यक्ष रामबाबू सिंह भितरघात या अंदरूनी कलह को कारण नहीं मानते। वह कहते हैं, बड़ा भाई बनकर पार्टी ने बड़ा दिल दिखाया।
चार सीटें मिलने की उम्मीद
गठबंधन धर्म का पालन पार्टी ने पूरी इमानदारी से की। इससे भी कुछ नुकसान हुआ, मगर इस वर्ष के चुनाव में पार्टी इसकी भरपाई करेगी। यहां चार सीटें मिलने की उम्मीद है, सभी पर पार्टी के उम्मीदवार की जीत बड़े अंतर से होगी।
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