गांव में रोजगार नहीं, पलायन बनी मजबूरी
मधुबनी। बेरोजगारी आज के ग्रामीण क्षेत्र की एक बड़ी समस्या है। बदले हालात में गांवों में रोजगा

मधुबनी। बेरोजगारी आज के ग्रामीण क्षेत्र की एक बड़ी समस्या है। बदले हालात में गांवों में रोजगार उपलब्ध नही होने से लोगों को परिवार का गुजर बसर करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। कोरोना काल में बड़ी संख्या में लोग दूसरे प्रांतों से अपने घर इस इरादे के साथ पहुंचे कि अब वे वापस नहीं लौटेंगे, लेकिन गांवों में रोजगार के अवसर नहीं मिलने से एक बार फिर लोगों को मजबूरी में पलायन करना पड़ रहा है। लोगों ने एक बार फिर दूसरे प्रांतों की ओर रुख कर लिया है। कोरोना काल में भी मजदूरों और कामगारों को लेकर सरकारी घोषणाएं तो हुई, लेकिन वे घोषणाएं धरातल पर दम तोड़ चुकी हैं। बाहर से आए लोगों के लिए मनरेगा समेत अन्य योजनाओं में रोजगार सृजन की बात कही गई, धरातल पर मजदूरों के हालात बदलते नही दिखाई दे रहे हैं। मजदूरों को नहीं मिल रहा मनरेगा का लाभ :
अंधराठाढ़ी पंचायत में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना मजदूरों को रास नहीं आ रही है। गांव से मजदूरों का शहरों की ओर पलायन गांव में ही रोजगार उपलब्ध कराने वाली मनरेगा जैसी योजनाओं पर कई बड़े सवाल खड़े करती है। पंचायतों तक मनरेगा में हर साल करोड़ों की रकम पहुंचती है, लेकिन मनरेगा से काम पाने की राह इतनी कठिन हैं कि मजदूर इस योजना से तौबा करने लगे हैं। मशीनों से काम, मजदूरों के नाम पर राशि का उठाव :
मनरेगा के अधिकारी और जनप्रतिनिधियों की मिलीभगत से सारा काम ट्रैक्टर और बुलडो•ार से हो जाता है और फिर मजदूरों के नाम पर पैसे का उठाव हो जाता है। अंधराठाढ़ी उत्तर और दक्षिण पंचायत मिलाकर करीब पांच ह•ार मजदूर मनरेगा से निबंधित हैं, लेकिन एक भी मजदूर को 100 दिन की गारंटी रोजगार का लाभ नही मिला है। हालांकि, पिछले पांच सालों में अंधराठाढ़ी में मनरेगा से करीब सात से आठ करोड़ की योजनाओं का काम हुआ है। मनरेगा ने एक ओर गांवों में खेती के लिए मजदूरी बढ़ा दी, दूसरी ओर उनकी कमी भी दिखा दी। स्थिति यह है कि खेती के लिए जब मजदूरों की जरूरत होती है, तो खोजने पर भी नहीं मिलते हैं। गांवों में अब भी सड़क, संचार, स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं शहरों की तुलना में बेहद कम है। इसलिए गावों में आधारभूत ढांचे की कमी भी पलायन की एक बड़ी वजह है।
- चंद्र कुमार चौधरी, अंधराठाढ़ी लॉकडाउन में घर वापस आया तो सोचा यहीं काम करूंगा। मगर, मनरेगा सहित किसी भी योजना से कोई भी काम नहीं मिला। सरकार ने प्रवासी मजदूरों को जो राशि दी थी, वो भी नहीं मिली। फिलहाल परिवार के भरण पोषण के लिए चाय की दुकान चलाता हूं। उम्मीद थी कि गांव में ही रोजगार की व्यवस्था होगी और मजदूरी के लिए अन्य प्रदेश पलायन नहीं करना होगा। लेकिन, रोजगार नहीं मिलने से पलायन करने को मजबूर हूं।
- बबलू, अंधराठाढ़ी इंसेट ::: आधुनिकता के दौर में बदल गए गांव :
बदलते समय के साथ-साथ गांव भी बदल रहे हैं। गांव के कल और आज में बहुत फर्क आ गया है। टप्पर वाली बैलगाड़ी विलुप्त हो गई। लोग बदल गए, दौर बदल गया। कई बुजुर्ग बताते हैं कि बीते हुए पल मानों अतीत के सपनों में कहीं गुम हो गए। परिवर्तन के इस दौर में गांव के लोग भी आसमानों का सफर करने लगे हैं। पहले की तुलना में भले ही सुविधाएं काफी बढ़ गई है, मगर लोगों के आराम व सुकून कम हो गए हैं। लोगों के बीच दूरियां बढ़ गई। लोग आपस में दूर और मोबाइल, कंप्यूटर, टीवी के बहुत करीब हो गए हैं। आज समाज में नैतिकता की कमी होती जा रही है। एक समय था जब बच्चे बड़े-बुजुर्गो के पांव छू कर प्रणाम करते थे व आशीर्वाद लेते थे, मगर अब ये पुराने दौर के रीति रिवाज कहलाते हैं। बदलते समय में तकनीकी ने गांव में भी हमारे कार्य करने की गति बढ़ा दी है। प्यार, अपनापन और सामाजिक संबंधों को काफी कमजोर कर दिया है।
- राधेश्याम झा, सेवानिवृत शिक्षक नैतिकता की आधुनिक युग में कमी होती जा रही है। जैसे-जैसे इंटरनेट व सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ रहा है, वैसे-वैसे हम नैतिकता को भूल रहे हैं। सोशल मीडिया का प्रयोग गलत नहीं है। यह हमारे ज्ञान के स्तर को बढ़ाता है, लेकिन आज कुछ बच्चे इसका गलत प्रयोग कर अपने संस्कारों को भूल रहे हैं। आजकल बच्चे बड़ों का आदर करना भूल रहे हैं। हमें आधुनिक जरूर बनना चाहिए, लेकिन अपने संस्कारों को नहीं भूलना चाहिए।
- महेश झा, सेवानिवृत्त शिक्षक
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