Chakai Vidhansabha: यहां दल नहीं, प्रत्याशी की छवि पर पड़ता है वोट; इस बार कैसा है समीकरण?
चकाई विधानसभा क्षेत्र में, प्रत्याशी की छवि राजनीतिक दल से अधिक महत्वपूर्ण है। मतदाता उम्मीदवार के व्यक्तित्व और विश्वसनीयता को प्राथमिकता देते हैं। स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना और सामाजिक समीकरणों को समझना भी चुनाव में सफलता के लिए आवश्यक है। उम्मीदवार को सभी समुदायों का विश्वास जीतना होता है।

संवाद सूत्र, सोनो (जमुई)। चकाई विधानसभा क्षेत्र की राजनीति बिहार की उन चुनिंदा सीटों में शुमार है, जहां हर चुनाव एक नई कहानी कहता है। यहां की सियासत कभी किसी एक दल की लकीर में नहीं बंधी। यही कारण है कि चकाई की जनता ने बार-बार यह साबित किया है कि इस सीट पर पार्टी नहीं, प्रत्याशी की छवि और जनता से जुड़ाव ही जीत की असली गारंटी है।
चकाई के मतदाता जाति, धर्म या राजनीतिक दल से ऊपर उठकर उम्मीदवार के व्यक्तित्व, कार्यशैली और जनसंपर्क को तरजीह देते हैं। यही वजह है कि यहां कई नेताओं ने अलग-अलग दलों से या निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जीत हासिल कर यह साबित किया है कि यहां के वोटर सोच-समझकर मतदान करते हैं, अंधभक्ति नहीं करते।
वर्ष 1977 में फाल्गुनी प्रसाद यादव ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जीत दर्ज कर सबको चौंका दिया था। बिना किसी संगठन या बड़े दल के सहारे भी उन्होंने जनता की सेवा और सादगी से अपनी मजबूत पहचान बनाई। इसके बाद 1980, 1995 और 2005 में भाजपा के टिकट पर उन्होंने जीत हासिल की।
तीन अलग-अलग दशकों में मिली सफलता ने यह साबित किया कि उनकी लोकप्रियता किसी पार्टी की देन नहीं, बल्कि जनता की सच्ची निष्ठा का परिणाम थी। चकाई के चर्चित नेता नरेंद्र सिंह ने भी यही परंपरा आगे बढ़ाई।
उन्होंने 1985 में कांग्रेस, 1990 में जनता दल और 2000 में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जीत दर्ज की। अलग-अलग राजनीतिक पृष्ठभूमियों के बावजूद हर बार जनता ने उन्हें अपना प्रतिनिधि चुना।
यह दर्शाता है कि चकाई की जनता नेता के काम और व्यवहार को याद रखती है, न कि उनके दल के झंडे को। 2010 में सुमित कुमार सिंह ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के प्रत्याशी के रूप में जीत दर्ज की और 2020 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतकर यह परंपरा और मजबूत की।
जनता ने एक बार फिर साबित किया कि उनके लिए पार्टी का नाम नहीं, उम्मीदवार की निष्ठा और जनता से जुड़ाव ही सबसे बड़ी पूंजी है। चकाई की राजनीति में 2015 का चुनाव भी खास रहा, जब दिवंगत फाल्गुनी यादव की पत्नी सावित्री देवी ने राजद के टिकट पर जीत दर्ज की। यह पहला मौका था जब किसी महिला प्रत्याशी ने यहां से विजय हासिल की।
इससे यह स्पष्ट हुआ कि चकाई के मतदाता नए नेतृत्व को मौका देने में संकोच नहीं करते, यदि उनमें विश्वास और कार्यकुशलता हो। चकाई विधानसभा का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि यहां हर चुनाव में समीकरण बदलते हैं पर लोकतांत्रिक परिपक्वता कायम रहती है।
2005 में अभय सिंह लोजपा के टिकट पर विजयी हुए तो अगले चुनावों में अन्य दलों के प्रत्याशी जनता की पसंद बने। यही वजह है कि चकाई सीट को राजनीतिक रूप से अनिश्चित, लेकिन लोकतांत्रिक रूप से परिपक्व माना जाता है। आगामी विधानसभा चुनाव में भी चकाई पर सभी की निगाहें टिकी हैं।
एक बार फिर यह सवाल सामने है, क्या इस बार दल का पलड़ा भारी रहेगा या परंपरा कायम रखते हुए जनता किसी ऐसे चेहरे पर भरोसा जताएगी जो पार्टी से ऊपर उठकर जनता के बीच अपनी साख बना चुका हो?

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